विचार विमर्श- 3
इस शृंखला के तीसरे भाग में कुछ विचार होंगे और उन पर हमारा विमर्श होगा. आप भी कामेंट्स में अपनी राय लिख सकते हैं-
1.क्या अज्ञानता का परिचायक घमंड है?
ज्ञान का घमंड सबसे बड़ी अज्ञानता है एवं अज्ञानता की सीमा को जानना ही सच्चा ज्ञान है. इंसान का ज्ञान तभी शोभा देता है जब वह घमंड रहित हो. ज्ञान का सीधा अर्थ होता है,सभी क्षेत्रों में या किसी विशेष क्षेत्र में विशेष ज्ञान का होना. ज्ञान का एक अर्थ यह भी है ” अज्ञानता से मुक्त ” इसलिए यदि कोई बहुत बड़ा ज्ञानी है तो उसका प्रमाण है उसकी सहजता. कई बार हम अज्ञानता के कारण अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं, परंतु जब विपत्ति आती है तो वही व्यक्ति हमें सीख दे के चले जाते है. ऐसे में हमें अपनी अज्ञानता का बोध तो होता ही है, हमारा घमंड भी चूर-चूर हो जाता है. जब अहंकार का प्रवेश हो जाता है तो व्यक्ति पतन की तरफ़ बढ़ने लगता है. कोई कितना भी ज्ञानी हो कभी-कभी उसको भी सहायता की ज़रूरत पड़ जाती है इसलिए किसी भी इंसान को अपने ज्ञान पर घमंड नहीं करना चाहिए और न ही अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझना चाहिए. एक ज्ञानी व्यक्ति हमेशा सीखने की कोशिश करता है, वह कभी भी अपने आप को संपूर्ण गुणों से संपन्न नहीं मानता है, जबकि थोड़ा-बहुत ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अपने आप को संपूर्ण ज्ञानी प्रदर्शित करता है. यही प्रदर्शन घमंड है और अज्ञानता का परिचायक भी है.
2.क्या जिंदगी हर कदम पर एक नया फैसला है?
परिवर्तन प्रकृति का नियम है. प्रकृति पल-पल अपने रूप में परिवर्तन करती रहती है. समुद्र की लहर अगले पल वैसी नहीं रहती, फूल-पत्ती में भी परिवर्तन नजर आता है. कोमल किसलय जैसा पत्ता कब हरा होकर कठोर हो जाता है और फिर सूखकर झर जाता है, पता ही नहीं लगता है. सुंदर-सुकोमल सुमन कुछ समय में झर जाता है, भले ही उसकी सुगंध विद्यमान रहती है. परिवर्तन मौसम में होता है और मौसम के फल-फूल-सब्जियों आदि के उत्पादों में भी.
पशु-पक्षी-कीट-पतंग-मनुष्य का शरीर पल-पल परिवर्तित होता रहता है और प्राणी का स्वभाव भी. स्वभाव में यह अंतर कभी सफलता के कारण आता है तो कभी असफलता के कारण, कभी मन में क्रोध का आवेश होता है तो कभी प्रेम-प्यार का सुमधुर अहसास. इसी स्वभाव के कारण हम कभी-कभी बड़े-से-बड़ा संकट भी साहस के साथ सहजता से झेल जाते हैं, तो कभी-कभी छोटी-से-छोटी सामान्य-सी बात भी हमें दुविधा के कटघरे में खड़ा कर देती है.
क्रोध के आवेश में किया गया फैसला कभी-कभी भयंकर परिणाम का कारण बन जाता है, इसलिए ज्ञानीजन कहते हैं, कि क्रोध के आवेश में कोई फैसला मय करो. पल भर सोचने पर भी कभी-कभी हमें अहसास होता है, कि हम बहुत गलत करने वाले थे और बड़ा संकट टल जाता है.
प्रकृति और स्वभाव का यह परिवर्तन आह्लादकारी भी होता है. इससे हमारा जीवन वैविध्यता से तरोताजा बनाए रखता है.
3.सरकारी विभाग में जीवित को मृत दिखाना क्या अपराध घोषित नहीं होना चाहिए?
सरकारी विभाग में जीवित को मृत दिखाना महज अपराध ही नहीं जघन्य अपराध घोषित होना चाहिए. छपरा जिले की गरीब महिला चानो देवी जब लॉकडाउन के दौरान अपने जनधन खाते से पैसा निकालने गई तो उन्हें जवाब मिला-
‘आप तो मर चुकी हैं, आपको आपके खाते के पैसे कैसे दें?’
कितने शर्म की बात है जीवित को मृत दिखाना! अब जीवित व्यक्ति अपने जीवित होने का प्रमाण जुटाता फिरे! किसी को भी मृत दिखाने से पूर्व सरकारी विभाग को पूरे प्रमाण जुटाने चाहिएं. सरकारी विभाग में जीवित को मृत दिखाना अपराध घोषित होना चाहिए और उसके खिलाफ सख्त कार्यवाही भी करनी चाहिए, ताकि ऐसी धांधलियां बंद हो सकें.
4.क्या ऑनलाइन शॉपिंग में लुभावने ऑफर्स से सावधान रहना चाहिए?
जी हां, ऑनलाइन शॉपिंग में लुभावने ऑफर्स से अवश्य सावधान रहना चाहिए. ऑनलाइन शॉपिंग अपने आप में बहुत लुभावनी होने के बावजूद लुभावनी नहीं होती. एक तो बिना लाभ के कोई लुभावने ऑफर्स देगा ही क्यों? दूसरे उसमें बहुत-से पेंच होते हैं. लुभावने ऑफर्स को देखकर फटाफट खरीदारी करने से पहले उनसे जुड़े नियम व शर्तों को जान लेना जरूरी है. ताकि ऑनलाइन खरीदारी में चपत न लगे. ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जब किसी प्रॉडक्ट परचेज के साथ रिटर्न पॉलिसी के तहत प्रॉडक्ट लेने ग्राहक के घर ई-कॉमर्स कंपनी का कोई व्यक्ति नहीं आया, बल्कि ग्राहक को प्रॉडक्ट कंपनी के पास कुरियर करना पड़ा. ऐसी शर्त रहने पर ई-कॉमर्स कंपनी की प्रॉडक्ट रिटर्न में कोई भूमिका नहीं होती है, साथ ही ग्राहक को प्रॉडक्ट कंपनी को भेजने में आने वाला खर्च वहन करना होता है. इसके साथ ही साथ ही बढ़ रहा है हैकर्स का खतरा. लुभावने ऑफर्स में खतरे भी बहुत हैं. जरा-सी सावधानी हटी, दुर्घटना घटी. लेकिन हम अगर कुछ सावधानियां बरतें, तो इन खतरों से बच सकते हैं. लब्बोलुआब यह है कि ऑनलाइन शॉपिंग में लुभावने ऑफर्स से सावधान रहना चाहिए और अवश्य रहना चाहिए.
5.ईश्वर के रूप को आप क्या समझते हैं?
ईश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है. हिन्दी में ईश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं. अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है. जैसा कि हमने कहा है ईश्वर एक शक्ति है, इस शक्ति के रूप साकार भी हो सकते हैं, निराकार भी. अपनी-अपनी बुद्धि और श्रद्धा के अनुरूप हम ईश्वर के रूप की संकल्पना करते हैं.
6 .क्या स्वार्थ से दूर रखना चाहिए अपना जीवन?
जीवन को स्वार्थ से दूर रखना चाहिए के बारे में बहुत कुछ कहा गया है. सिनेमा का गीत कहता है-
”अपने लिये जिये तो क्या जिये, तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये”
साहित्य को देखें, तो तुलसीदास जी रामचरितमानस में कह गए हैं-
”परहित सरिस धर्म नहीं भाई”
धार्मिक परिप्रेक्ष्य से भी संतजन कहते हैं-
”नि:स्वार्थ सेवा भाव ही कामयाबी का मूल मंत्र है.”
काफी हद तक यह सही भी है. जीवन को स्वार्थ से दूर रखकर कार्य करने से जिस परम संतुष्टि की प्राप्ति होती है, वह परम शांतिदायक और अनूठी है. व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए, तो जीवन को स्वार्थ से सर्वथा दूर रखना प्रायः असंभव है. कहीं-न-कहीं हमें सीमा रेखा निर्धारित करनी होती है. तब यही कहना उचित लगता है-
”साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥”
सेवा भाव ही मनुष्य की पहचान बनाती है और उसकी मेहनत चमकाती है. सेवा भाव हमारे लिए आत्मसंतोष का वाहक ही नहीं बनता बल्कि संपर्क में आने वाले लोगों के बीच भी अच्छाई के संदेश को स्वत: उजागर करते हुए समाज को नई दिशा व दशा देने का काम करता है. अतः अपनी सीमित आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए नि:स्वार्थ सेवा भाव में लगे रहना ही व्यावहारिक और वांछनीय है.
7 .सच्चे मित्र की पहचान कब और कैसे होती है?
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-
”धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥”
अक्सर कहा जाता है- ”जो मित्र विपत्ति में आपका साथ दे वही सच्चा मित्र है.”
वास्तव में सच्चा मित्र हमेशा यादों में बसा होता है और हर दुःख-सुख का साथी होता है. कोई खुशी की खबर आए, तो प्रायः हम अपने सगे-संबंधियों से पहले अपने सबसे करीबी मित्र से साझा करते हैं. सच्चे मित्र को दुःख के बारे में बताना नहीं पड़ता, उसे स्वतः आभास हो जाता है और वह हर आपदा-विपदा में कंधे-से-कंधा मिलाकर साथ खड़ा होता है. विपत्ति आने पर जो आपसे दूर हो जाता है तो वह आपका सच्चा मित्र नहीं हो सकता, ऐसा मित्र शत्रु से भी ज्यादा खतरनाक है. सच्चे मित्र मुश्किल से मिलते हैं. सुदामा और कृष्ण की मित्रता, सच्ची मित्रता का अप्रतिम उदाहरण है. मित्रता में विश्वास की प्रमुखता होती है, इसमें छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच और संदेह का कोई स्थान नहीं होता है. सच्चा मित्र हमारी सबसे अनमोल पूंजी है.
मन-मंथन करते रहना अत्यंत आवश्यक है. कृपया अपने संक्षिप्त व संतुलित विचार संयमित भाषा में प्रकट करें.
सादर नमस्ते एवं धन्यवाद बहिन जी। आपके इस लेख के पढ़कर प्रसन्नता हुई एवं मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। हमने पढ़ा व अनुभव किया है कि मनुष्य का आत्मा अल्पज्ञ तथा परमात्मा सर्वज्ञ है। हमारे भीतर जो दुर्गुण, दुःख व दुव्र्यसन होते हैं वह अल्पज्ञता वा अविद्या के कारण है। इसकी पूर्ति ईश्वर के ज्ञान वेद का अध्ययन, चिन्तन तथा मनन करने सहित ऋषियों के ग्रन्थों के अध्ययन से दूर होती है। हम जितना वेदाध्ययन करेंगे उतनी ही हमारी अविद्या दूर होगी। मनुष्य कृत रचनायें उसी सीमा तक उपयोगी होती हैं जितना वह सत्य के निकट व ईश्वर के ज्ञान वेद के अनुकूल हों। यह सिद्धान्त हमें अपने पूर्वज सभी ऋषियों से प्राप्त होता है। सादर।
प्रिय मनमोहन भाई जी, रचना पसंद करने, सार्थक व प्रोत्साहक प्रतिक्रिया करके उत्साहवर्द्धन के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन. यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि हमेशा की तरह यह रचना, आपको बहुत अच्छी व प्रेरक लगी हमें भी आपकी ‘ आपके इस लेख के पढ़कर प्रसन्नता हुई एवं मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। हमने पढ़ा व अनुभव किया है कि मनुष्य का आत्मा अल्पज्ञ तथा परमात्मा सर्वज्ञ है। ‘ के प्रेरक संदेश से सुसज्जित प्रोत्साहित करने वाली प्रतिक्रिया लाजवाब लगी. सचमुच यह ज्ञान हो जाए, तो हमारा कल्याण हो जाए. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.
अपने मन में एक हरा-भरा वृक्ष सजाए रखिए,
गाने वाली चिड़िया अपने आप आएगी.
खुश रहने का यह भी एक तरीका है.