बोधकथा

खुद बदलिए, सब बदल जाएंगे !

“बहनों एवं भाइयों ! आप ही बताइए, अगर हम बेटे-बेटी को एकसमान समझते हैं, तो हम इसे अलग न मान इनके लिए सिर्फ ‘संतान’ शब्द का ही उपयोग क्यों नहीं करते हैं ? इससे हमारे विचार स्वस्थ, स्पर्द्धायुक्त और उन्नतशीलता लिए हमेशा तरोताज़ा रहेगी!”

मेरे इस विचार पर मेरे एक मित्र ने टिप्पणी किया- “बेटी को हम संतान क्यों कहें ? हम बेटी को बेटी क्यों नहीं कहें ? कभी कहेंगे, माँ-बहन के लिए ‘शब्द’ डालिए ! शब्द बदलना मानसिक दिवालियेपन का प्रतीक है । शब्द नहीं, सोच बदलिए !”

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“साहब ! सोच तो बदलने से रहा ! अगर सोच बदलने की प्रतीक्षा करते रहें, तो कोई देश कानून ही क्यों बनाये ?
देश की आज़ादी के 25 साल बाद भी जाति प्रमाण-पत्र में ‘ग्वाला’ शब्द दर्ज़ होता था, जिससे दबंगों और सवर्णों द्वारा इसी नामार्थ संबोधित किया जाते रहा, इस जाति के लोगों में हीनता आबद्ध होने लगी, तब श्रद्धेय बी पी मंडल के सद्प्रयास से उस शब्द को हटाकर ‘यादव’ शब्द रखा गया । यहाँ चाहकर भी सोच नहीं बदला, शब्द बदलना पड़ा ।
‘हरिजन’ शब्द का व्यवहार दबंगों और सवर्णों द्वारा कमेंट्स के तौर पर लिया जाने से अनुसूचित जाति के लोगों ने आपत्ति जताई, फलस्वरूप सरकार ने इस शब्द के एतदर्थ संबोधन पर रोक लगा दी । हे साहब, फिर भी ‘सोच’ नहीं बदला, शब्द के ग़ैर-इस्तेमाल पर रोक लगी ।
कुम्हड़े (कुम्हार) और चमरे (चमार) शब्द के वाचन पर रोक है, जाति प्रमाण-पत्र भी क्रमशः ‘प्रजापति’ व ‘रविदास’ नाम से भी जारी होती है । सोच कहाँ बदली ? ‘शब्द’ बदली !
बिहार में आख़िरकार ‘शराबबंदी कानून’ बनी, लोग इसे गलत व्यसन मान स्वत: कभी नहीं छोड़े । ‘बाल विवाह’ और ‘दहेज कुप्रथा’ भी स्वत: दूर नहीं हुई, इसे उन्मूलन के लिए और कड़ाई से पालन के लिए आखिरकार बिहार सरकार ने ‘कानून’ बनाया । क्योंकि–फिर भी सोच नहीं बदली!
जब हम मनु-शतरूपा, आदम-हव्वा, एडम-ईव की संतान हैं, तो जातिगत भेदभाव कैसे?
आज़ादी के 71 साल बाद भी एक ब्राह्मण स्वत: (प्रेम विवाह नहीं) अपनी संतान की शादी मोची व धोबी के यहाँ कहाँ कराते हैं ? या कोई दुसाध स्वत: (प्रेम विवाह नहीं) अपनी संतानों की शादी राजपूत व कायस्थ में कराने के आलोकश: प्रस्ताव लेकर कहाँ जाते हैं ? बोलिये साहब, हम सोच बदल पा रहे हैं ! नहीं न !”
मैंने अपने यथोक्त विचार को स्पष्ट किया।

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जहाँ तक माँ और बहन जैसे- शब्द की बात है, तो अभीतक माँ और बहन खुद आदर्शतम शब्द है, किन्तु बेटी कहने में अब भी कई लोग संकोच करते हैं, नहीं तो ऐसे लोग उन्हें ‘बेटा’ क्यों कहते ? संतान कहा जाने में कोई पकड़ नहीं आएगी कि हम बेटा का जिक्र कर रहे हैं या बेटी की !
साहब, हमारी सोच इतनी मानसिक और सामाजिक रूप से इतनी संकोचित, संकीर्ण और दिवालियेपन की शिकार हो गई है कि चाहकर भी अपनी ‘सोच’ बदल नहीं पा रहे हैं, इसलिए ‘शब्द’ बदल रहै हैं! मर्ज़ी आपकी, लेकिन मेरा मिशन जारी रहेगा !

डॉ. सदानंद पॉल

एम.ए. (त्रय), नेट उत्तीर्ण (यूजीसी), जे.आर.एफ. (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), विद्यावाचस्पति (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर), अमेरिकन मैथमेटिकल सोसाइटी के प्रशंसित पत्र प्राप्तकर्त्ता. गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकॉर्ड्स इत्यादि में वर्ल्ड/नेशनल 300+ रिकॉर्ड्स दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: 'नेशनल अवार्ड' प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 12,000+ रचनाएँ और संपादक के नाम पत्र प्रकाशित. गणित पहेली- सदानंदकु सुडोकु, अटकू, KP10, अभाज्य संख्याओं के सटीक सूत्र इत्यादि के अन्वेषक, भारत के सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अर्हताधारक, पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.