ग़ज़ल
बाहर देखा, देखा अन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
सुन्दरता के लेकर मन्ज़र फिर भूखे का भूखा मन।
ध्रती, अम्बर, दौलत, शोहरत, प्यार-मुहोब्बत लेकर भी,
फिर ना मानें एैसा कंजर फिर भूखे का भूखा मन।
अपने दिल की हर एक इच्छा पूरी करके बैठा है,
फिर भी जाता है यह मन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
बस्ती अन्दर क़त्त्ल हज़ारों करके फिर भी प्यासा है,
बगल में रखता है फिर ख़न्जर फिर भूखे का भूखा मन।
दुनियां इसने देखी सारी और पता नहीं क्या चाहे,
घूमें है घर बाहर कलन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
बूढ़ा होकर भी यह अदना एैसे रहता है जैसे,
मार टपूसी बैठा बन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
क्या-क्या पीता अगर बताऊँ, मुँह में उँगली आवे है,
शाम ढ़ले को भोले शंकर फिर भूखे का भूखा मन।
अंत्तिम साँसों में रह कर भी भौतिकता को फिर ढूँढ़े,
पी कर अमृत, ज़हर, समन्दर फिर भूखे का भूखा मन।
‘बालम’ आँखों-आँखों से ही भिन्न-भिन्न सुन्दरता,
टुकता रहता जैसे छछून्दर फिर भूखे का भूखा मन।
— बलविन्दर ‘बालम’