ग़ज़ल
झोपड़ी हो या महल, घर, एक जैसे हो गए,
घास की छत, संगमरमर, एक जैसे हो गए।
बात मतलब की चली तो दोस्ती क्या दुश्मनी,
फूल, कांटे, कांच, पत्थर, एक जैसे हो गए।
देश के ख़ातिर कटें जब बात आई दोस्तों,
हिंदू या मुस्लिम का हो सर, एक जैसे हो गए।
राह में सब साथ हैं किस तर्हा से पहचान हो,
कौन रहजन, कौन रहबर, एक जैसे हो गए।
ज़िंदगी ने जब कभी पूछे कईं हमसे सवाल,
मुख़्तसर प्रश्नों के उत्तर, एक जैसे हो गए।
‘जय’ तो है छोटा सा दरिया देखिए पर होड़ में,
दुनिया भर के सब समंदर, एक जैसे हो गए।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’