कवि अज्ञेय और उनकी प्रसिद्ध कविता ‘कतकी पूनो’
कवि ‘अज्ञेय’ की प्रसिद्ध कविता ‘कतकी पूनो’ !
कार्तिक पूर्णिमा की रात है और इस रात की सुंदरता स्वयं में अप्रतिम है।
यह रात हल्की-हल्की ठंड की दस्तक लिए आती है और फिर जब उसमें चाँद की शीतलता को महसूस किया जाए तो बरबस वातावरण कवितामय हो जाता है और तब प्रस्तुत कविता कुदरत में प्रेम की तरह छिड़की हुई सी लगती है।
1947 की ऐसी ही एक रात को लिखी गयी, कार्तिक महीने की पूर्णिमा को समर्पित प्रस्तुत कविता हिंदी नक्षत्र के सबसे रहस्यमयी कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की है। कार्तिक माह की अंतिम रात्रि के इश्कयापे में आइए पढ़ते हैं, खूबसूरत कविता ‘कतकी पूनो’ को, यथा-
“कतकी पूनो
छिटक रही है चांदनी,
मदमाती, उन्मादिनी,
कलगी-मौर सजाव ले
कास हुए हैं बावले,
पकी ज्वार से निकल
शशों की जोड़ी गई फलांगती,
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती !
कुहरा झीना और महीन,
झर-झर पड़े अकास नीम,
उजली-लालिम मालती
गन्ध के डोरे डालती,
मन में दुबकी है हुलास
ज्यों परछाईं हो चोर की,
तेरी बाट अगोरते
ये आँखें हुईं चकोर की !”