विदाई
तुमसे विदा लेते समय,
जो शब्द कहे थे मैंने,
आहत कर गए थे मुझे भीतर तक।
कितनी मुश्किल से बोल सकी थी,
“अलविदा।'”
जाने क्या-क्या टूट रहा था,
मेरे अंतस में,
मन और मस्तिष्क के अंतर्द्वंद से।
आशाएं, धैर्य, व्याकुलता,
सब पस्त हो गए थे इस कश्मकश में।
आंसुओं का विशाल सागर,
उमड़ पड़ा था आंखों में।
कितनी मुश्किल से रोक पाई थी,
उसके बहाव को।
मृत सपनों का बोझ उठाए,
मुड़ कर देखे बिना,
चुपचाप चली आई थी मैं।
लगा था तुम रोक लोगे,
मुझे आगे बढ़ कर।
शायद मेरी तरह तुम भी,
टूट गए होगे भीतर तक।
पता नहीं मेरा भ्रम था या सच,
आंखों की कोरें तुम्हारी भी नम थीं।
शायद कुछ तो फिसल रहा था,
तुम्हारी भी बंद मुट्ठी से,
मुझसे विदा लेते समय।
— कल्पना सिंह