विरह
निष्ठुरता का कर आलिंगन,
प्रस्तर हृदय प्रिय हो गए।
याचना को कर तिरस्कृत,
नयनों से ओझल हो गए।
छिन गया जीवन बसंत,
सहस्र शर हिय में चुभ गए।
स्पंदन विहीन हो गई काया,
प्राण वायु वे संग लेे गए।
कितनी सहजता से उन्होंने,
समर्पण मेरा ठुकरा दिया।
करती रही यह आत्ममंथन,
स्मृति कोहरा भी गहरा गया।
दल दीठ में जल अपने भरकर,
जल – जलकर आहें भरती रहूं।
विरह का विषपान करके,
कब तक यूं ही जीवित रहूं?
— कल्पना सिंह