ग़ज़ल “कठिन बुढ़ापा बीमारी है”
हिम्मत अभी नहीं हारी है
जंग ज़िन्दगी की जारी है
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मोह पाश में बँधा हुआ हूँ
ये ही तो दुनियादारी है
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ज्वाला शान्त हो गई तो क्या
दबी राख में चिंगारी है
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किस्मत के सब भोग भोगना
इस जीवन की लाचारी है
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चार दिनों के सुख-बसन्त में
मची हुई मारा-मारी है
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हाल भले बेहाल हुआ हो
जान सभी को ही प्यारी है
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उसकी लीला-वो ही जाने
ना जाने किसकी बारी है
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ढल जायेगा ‘रूप’ एक दिन
कठिन बुढ़ापा बीमारी है
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)