परोपकार
उपकार का अर्थ है-भलाई करना। परोपकार के कई प्रकार है प्रथम सुख हमें प्रकृति के कार्यों से मिलता है। कुछ हम दूसरों के लिए करते है कुछ लोग हमारे लिए करते है। कर्म की यह क्रिया ही जीवन है। जबकि सूर्य, चंद्रमा, तारे, अग्नि, औषधि, फल-फूल जगत कल्याण में लगे है। मानव भी क्यों न इन्हीं की भाति जीवन की गतिशीलता को बनाए रखे। वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं, नदियाँ अपना पानी स्वयं नहीं पीती हैं। इसी प्रकार फूल दूसरों के लिए खिलते हैं और बादल जीवों के कल्याण के लिए अपना अस्तित्व तक नष्ट कर देते हैं। परोपकार मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। हमारे ऋषि-मुनि तो अपना जीवन परोपकार में अर्पित कर देते थे। वेदना उस वक्त ज्यादा होती है जब व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति सजग कम और अधिकारों को बटोरने में लगा रहता है। यह असंतुलन ही विपरीत परिस्थितिया पैदा करता है। माना व्यवस्था को बनाए रखना व्यक्ति के हाथ में काफी हद तक है। पानी की अभिलाषा श्रम का पसीना बहाने से कम है। यह संकीर्ण विचार धारा पैदा करती है। मानव तब तक जंगलों को काटता रहता है जब तक एक भी वृक्ष न बचे। यह अभिलाषा स्वयं उसके पाव पर कुल्हाड़ी है। परोपकार वह सार सूत्र है जो विधि का आधार है। अगर मानव की भाति सरोवर, तरुवर, नदिया, पर्यावरण अपने अंदर खोट पैदा कर ले तो मानव जीवन चंद मिनटों में डगमगा जाएगा। लोगों को चाहिए कि वे प्रकृति की तरह हर प्राणी के प्रति परोपकार की भावना रखे। परोपकार हमारी धरोहर है. जो हमें परोपकार की प्रेरणा देते हैं। कहा भी गया है कि ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।’ परोपकार से व्यक्ति को सुख-शांति की अनुभूति होती है तथा जिसकी भलाई की जाती है उसे अपनी दीन-हीन स्थिति से मुक्ति मिल जाती है। परोपकार व्यक्ति को आदर्श जीवन की राह दिखाते हैं। विधा में परोपकार तो राष्ट्र की वह कुंजी है जिसे कोई लूट नहीं सकता। परोपकार सच्चे आनंद का स्रोत। परोपकार से व्यक्ति को सच्चा आनंद प्राप्त होता है। इसी आनंद के वशीभूत होकर व्यक्ति अपना तन-मन और धन देकर भी परोपकार करता है। महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ देकर मानवता का कल्याण किया तो शिवि ने अपने शरीर का मांस देकर कबूतर की जान बचाई। हमें भी परोपकार का अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।परोपकार बिना जीवन भूला या कुछ छूटा लगता.
-– रेखा मोहन