धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

विचार विमर्श- 4

1.क्या बिना विचारों के इंसान का जीवन संभव है?

इंसान के जीवन के लिए कुछ चीजें बहुत जरूरी हैं, जिनमें वायु, जल, प्रकाश, रोटी, कपड़ा, मकान प्रमुख हैं. आज की चर्चा का विषय है- क्या बिना विचारों के इंसान का जीवन संभव है?
विचारों का स्वरूप अमूर्त है. विचार दिखाई नहीं देते, पर इंसान के साथ हर समय रहते हैं. अनेक बार हमारे मन में विचार आता है, कि हम कोई विचार नहीं करेंगे. यानी विचार न करने के लिए भी मन में विचार आ ही गया. जिस प्रकार कोई भी स्थान वायु के बिना नहीं होता, कोई भी मस्तिष्क विचार के बिना नहीं हो सकता. विचार सकारात्मक भी हो सकते हैं, नकारात्मक भी, पर विचार होते अवश्य हैं. जिसके साथ श्रेष्ठ विचार होते हैं, वह कभी अकेला नहीं हो सकता. इसलिए बड़ा सोचो, जल्दी सोचो, सबसे आगे सोचो. विचारों पर किसी का भी एकाधिकार नहीं है, क्योंकि विचारों के बिना तो इंसान का जीवन संभव ही नहीं है.

2.क्या भरोसे के बल पर कर्म सरोकार होता है?

आज की चर्चा का विषय है- ”क्या भरोसे के बल पर कर्म सरोकार होता है?” इसमें तीन तरह के मत प्रचलित हैं. कुछ मानते हैं कि जीवन में सब कुछ कर्म की बदौलत घटित होता है. दूसरा मत है- ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा.’ ऐसे लोग भाग्य के भरोसे रहते हैं. तीसरा मत मध्यमार्गियों का है, जो कहते हैं कि जीवन में कर्म और भाग्य साथ-साथ चलते हैं और अकेले कर्म से भी काम नहीं चलता है और भाग्य भी अकेले कुछ नहीं कर सकता. बड़ी तादाद इसी मार्ग के पथिकों की है, जो कि सही भी है. एक ब्यक्त कड़ा परिश्रम करके भी कुछ नहीं हासिल कर पाता, जब कि दूसरा तनिक परिश्रम से ही सब कुछ हासिल कर लेता है. दोनों स्थितियों में कर्म करना तो अनिवार्य है.
इसके अतिरिक्त भरोसा भी दो प्रकार का है- पहला खुद पर भरोसा करके उड़ान भरना, दूसरा ईश्वर या कि कहिए भाग्य पर भरोसा करना. यहां ज्ञातव्य है, कि-
”मालिक केवल मार्गदर्शक है,
आत्मा के लिए तो आप को ही पुरुषार्थ करना पड़ता है.”
पुरुषार्थ करने वाले का भाग्य भी साथ देता है और जो आत्मसंतुष्टि मिलती है, उसका तो कोई मुकाबला ही नहीं है. एक कदम हम उठाते हैं, तो मालिक दस कदम उठाता है-
”ज़िंदगी कांटों का सफ़र है,
हौसला इसकी पहचान है,
रास्ते पर तो सभी चलते हैं,
जो रास्ता बनाए, वही इंसान है.”
हौसले को बनाए रखने के लिए कर्म तो करना नितांत आवश्यक ही है, हां फल भले ही भाग्य से मिलता है. नई दिल्ली के बलबीर पेशे से ड्राइवर थे. कोरोना के कारण गई नौकरी. वे जिस स्कूटी से ऑफिस जाते थे उसी पर खोला ढाबा, दोस्त को भी दी नौकरी. अपने कर्म के बल पर ही महाराष्ट्र की सिलबट्टे बेचने वाली महिला पद्मशीला तिरपुंडे सब-इंस्पेक्टर बनी. ऐसी अनेक मिसालें कर्म की प्रधानता को प्रोत्साहित करती हैं. मध्यमार्गी बनते हुए कर्म करना सर्वश्रेष्ठ है.

3.क्या बिना चुनौतियों के कोई उपलब्धि हासिल होती है?
चुनौती और उपलब्धि का चोली दामन का साथ है. बिना चुनौती के कोई उपलब्धि हासिल हो ही नहीं सकती. उपलब्धि के लिए सबसे पहले लक्ष्य का निर्धारित होना आवश्यक है. लक्ष्य निर्धारित करने के बाद उस लक्ष्य को पाने के साधन पर विचार करना होता है और तदनुसार कर्म करना होता है. कभी-कभी ही ऐसा संभव हो पाता है, कि एक आसान-सी कैच की तरह अपना लक्ष्य बिना चुनौती के हासिल हो जाता है. इसे करिश्मा या चमत्कार भी कह सकते हैं. अन्यथा किसी भी क्षेत्र की किसी भी उपलब्धि के लिए चुनौतियों का सामना करना ही पड़ता है. चुनौतियां ही तो कर्म करने के लिए प्रेरणा देती हैं, आगे बढ़ने के लिए संबल बनती हैं, विजय श्री की जयमाल को वरण करने का संकल्प करवाती हैं. उसके बाद ही उपलब्धियां हासिल होती हैं. इतिहास साक्षी है, कि चुनौतियों ने ही आविश्कार भी करवाए हैं और उपलब्धियां भी हासिल करवाई हैं. किसी कार्य में एक या अनेक बार असफल होने पर ही चुनौती सामने आती है और दृढ़ संकल्प द्वारा यही चुनौती उपलब्धि बन जाती है.

4.समस्याओं से कैसे बाहर निकल सकते हैं?
समय-जीवन-प्रकृति निरंतर परिवर्तनशील हैं. इस निरंतर परिवर्तनशीलता के कारण सुख-दुःख, प्रकाश-अंधकार, वसंत-पतझड़ आते-j जाते रहते हैं. सुख-प्रकाश-वसंत को हम अपने अनुकूल मानते हैं, इसलिए वे हमें समस्या नहीं लगते. पता होते हुए भी कि दुःख-अंधकार-पतझड़ स्थायी नहीं हैं, हम घबराने लगते हैं, इसी को समस्या कहा जाता है. वास्तव में समस्या का अस्तित्व होता ही नहीं है. मानने से ही समस्या का अस्तित्व होता है, न मानो तो यह निरंतर परिवर्तनशीलता का एक सहज रूप है.
अब प्रश्न उठता है कि अगर समस्या मान ली जाती है, समस्याओं से कैसे बाहर निकल सकते हैं?
समस्याओं से बाहर निकलने का आसान तरीका है सकारात्मक रहकर साहस से समस्या का समाधान करना और अपनी समस्या को संभावना में बदलना. ध्यान देने योग्य बात है कि समस्या-सकारात्मकता-साहस-समाधान-संभावना सब ‘स’ से ही शुरु होते हैं.
सकारात्मकता एक ऐसी ऊर्जा है, जो सहजता से किसी समस्या का समाधान निकाल सकती है. सकारात्मकता बताती है कि हर समस्या में ही समाधान मौजूद है. अंधकार से डरना-घबराना नहीं है, प्रकाश करो तो अंधकार दूर हो जाएगी. इसी तरह साहस से सामना करने पर साहस प्रकाश का कार्य करता है.
संकट या समस्या को कोई आमंत्रित नहीं करता है, लेकिन अगर समस्या आ ही जाए, तो समाधान खोजा जा सकता है. कोरोना का संकट आया, जिन लोगों ने डर-घबराहट से काम लिया, उन्होंने आत्महत्या जैसे पलायनवादी तरीके अपनाए और जिन लोगों ने साहस से सामना किया और कर रहे हैं, वे ”मैं आत्महंता नहीं बनूंगा” जैसी कविता लिखकर खुद भी साहस से नई-नई संभावनाएं खोज रहे हैं और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है, कि समस्या मानने से होती है, हर समस्या के अंदर ही समाधान मौजूद होता है, बस नजर बदलने की आवश्यकता है. नजर को बदलो तो नजारे बदल जाते हैं.

5.अपराध को रोकने के लिए कानून का भय कितना आवश्यक है?
अपराध को रोकने के लिए कानून का भय अपरिहार्य है. अपराध कानूनी नियमों-कानूनों के उल्लंघन करने की नकारात्मक प्रक्रिया है, जिससे समाज के तत्वों का विनाश होता है. अपराध को रोकने के लिए कानून बने हुए भी हैं, पर उन कानूनों में इतनी खामियां होती हैं, कि संगीन से संगीन अपराधों के आरोपियों को भी राहत मिल जाती है. हमारे बुजुर्गों ने कहावत बनाई- ”लातों के भूत बातों से नहीं मानते.” यह सच भी है. ऑस्ट्रेलिया, हांगकांग, सिंगापुर, ईरान आदि जिन देशों में कड़े कानून बने हुए हैं और कड़ाई व त्वरितता से उनका अनुपालन भी किया जाता है, वहां अपराध न के बराबर कभी-कभार होते हैं. अतः कानून का भय भी आवश्यक है और कानून का त्वरित सक्रियता से लागू होना भी. देर से मिला न्याय अन्याय ही होता है.

6.क्या जीवन का मतलब सिर्फ दुनिया में आना-जाना है?

जीवन का मतलब सिर्फ दुनिया में आना-जाना नहीं है. दुनिया में आते-जाते तो सभी प्राणी हैं, पर जीवन का मतलब या लक्ष्य बनाने-समझने का विवेक महुष्य में ही है. इसी विवेक से काम लेकर हम एक विचार चुन लें. उस विचार को अपनी जिंदगी बना लें, उसके बारे में सोचें, उसके सपने देखें, उस विचार को जिएं तो अच्छा होगा. हमारा मन, हमारी मांसपेशिया, हमारे शरीर का हर एक अंग, सभी उस विचार से भरपूर हों और दूसरे सभी विचारों को छोड़ दें. यही सफ़लता का तरीका भी है और पैमाना भी . स्वयं द्वारा निर्धारित यह लक्ष्य मानव-समाज-देश-दुनिया की समुन्नति से सराबोर हो तो सोने पर सुहागा.

7.इंसान क्यों बन जाता है जानवर?

इंसान के अंदर जानवर प्रवृत्ति आने से इंसान जानवर हो जाता है. हर प्राणी में तीन तरह के गुण होते हैं- सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण. तमोगुण यानी तामसी प्रवृत्ति की प्रधानता वाला मनुष्य पशु प्रवृत्ति वाला होता है. प्रश्न यह उठता है, कि इंसान पशु प्रवृत्ति वाला क्यों हो जाता है? यह इंसान के संस्कारों का परिणाम भी हो सकता है और परिवेश का भी. परिवेश का अर्थ है घर-परिवार, पास-पड़ोस, स्कूल-ऑफिस के लोगों की संगति. ”जैसी संगति बैठिए तैसोई फल दीन”. कभी-कभी अच्छी संगति से पशु प्रवृत्ति वाला इंसान भी फरिश्ता हो जाता है और बुरी संगति से फरिश्ते जैसा इंसान भी पशु प्रवृत्ति वाला हो सकता है. मानवीय मूल्यों में निष्ठा की कमी इंसान को जानवर बना देती है.

मन-मंथन करते रहना अत्यंत आवश्यक है. कृपया अपने संक्षिप्त व संतुलित विचार संयमित भाषा में प्रकट करें.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “विचार विमर्श- 4

  • लीला तिवानी

    बिना विचारों और कर्मों के भले ही हमारा जीवन न चलता हो, लेकिन कोशिश करके सुविचारों को अपनाना और सुकर्मों को करना तो हमारे बस में हो सकता है. इसके लिए हम सद्विचारों का अध्ययन-मनन करके उनका अनुशीलन करें, विचार शुद्ध हो जाएंगे और तदनुसार कर्म भी पवित्र ही होंगे. जरूरत पड़ने पर अपने अनुभवी बुगुर्गों और समझदार हमदर्दियों से परामर्श किया जा सकता है.

Comments are closed.