सामाजिक

क्या मैं बिकाऊ हूं

मैं आजतक यह नहीं सोच‌ सका कि मैं ‌बिकाऊ हूं या नहीं। इस मंडी में कौन-कौन खरीददार हैं पहले यह तो पता कर लेना चाहिए, उसी के अनुसार अपनी कीमत का लेबल लगा सकूं। वैसे ‌तो‌ मेरा मोल केवल मात्र पांच रुपए है क्योंकि देह की राख का‌ मूल्य केवल इतना ही आंका है परन्तु यह तो तब है जब राख को खेत की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाए। नहीं तो कहीं ‌बहते‌ पानी में बहा दिया जाएगा।हो सकता है कोई दयालु या शुभचिंतक हरिद्वार गंगा नदी में इस शरीर के अवशेष जो राख है हजारों रुपए व्यय कर प्रवाहित कर दे। उस समय प्रवाहित करने वाले के लिए शायद यह अनमोल या अमूल्य हो। खैर तब मुझे तो पता ही नहीं चलेगा।

मन है ‌पता नहीं क्यों अंत तक और उसके बाद का मूल्य सोचने लगा। मेरा क्या , सभी का अंत तो होना ही है, कहीं तो इस शरीर को ठिकाने लगाना है। हो सकता है किसी अनजान स्थान पर शरीर को फैंक दिया जाए या आजकल की भांति कोविड 19 से संक्रमित समझकर प्लास्टिक की थैली में बांधकर दबा दिया, जला दिया या फैंक दिया जाए। तब का मोल मेरी सोच से बाहर ‌है।
एक और पहलू भी है, पता नहीं कोई खरीदे या न खरीदे, पर यह अच्छा रहेगा। पके फल का पता नहीं कब टपक जाए।अपने शरीर को अभी से मैडिकल कॉलेज के लिए दान करने के लिए लिख दूं। आज कल सुन रहा हूं कि डाक्टरी की पढ़ाई करने वालों को मनुष्य के शरीर के आंतरिक अंगों के निरीक्षण और परीक्षण के लिए मृत शरीर नहीं मिलता। लावारिस शरीर को पुलिस वाले मैडिकल कॉलेज को दे देते हैं। हां कुछ अंग जैसे आंखें, हृदय, फेफड़े, लिवर, गुर्दे का प्रत्यार्पण होने से किसी का भला हो सकता है। यह बहुत नेक और अच्छा होगा, कम से कम मुझे तो संतोष हो‌ जाएगा किसी के काम तो आऊंगा।
अब थोड़ा सोचता हूं कि मैंने बाद का सोच लिया, इस समय का मूल्य आकलन करना तो भूल ही गया। जीवित या मृत शरीर को नहीं खरीदता, हां टूटे बर्तन, लोहे का सामान, प्लास्टिक के टुकड़े आदि को कबाड़ी कुछ रुपए में खरीद लेता है। अब का मूल्य खरीददार पर तय होगा यदि मैं बिकाऊ बन जाऊं। मैं बिकाऊ बिल्कुल नहीं हूं। आज के युग में न कोई मनुष्य बिकता है और न ही कोई खरीदने वाला। दुर्भाग्यवश ऐसा सोच कहां से आगयी कि क्या मैं बिकाऊ बन सकता हूं ! स्वपनों की उड़ान का कोई अंत नहीं होता। मैं पढ़ा लिखा और सभ्य मनुष्य हूं। मैं अपने आप को पशु क्यों समझने लगा। हो सकता है चार्ल्स डार्विन के विचार का प्रभाव होगा कि मनुष्य के पूर्वज पशु थे।
अतः न मैं बिकाऊ हूं और न कोई खरीददार है। मैं अपना शरीर जीवित अवस्था में ही दान कर देना ही उचित समझता हूं।

— डॉ वी के शर्मा

डॉ. वी.के. शर्मा

मैं डॉ यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय सोलन से सेवा निवृत्त प्रोफेसर बागवानी हूं और लिखने का शौक है। 30 पुस्तक 50 पुस्तिकाएं और 300 लेख प्रकाशित हो चुके हैं। फ्लैट 4, ब्लाक 5ए, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, संजौली, शिमला 171006 हिमाचल प्रदेश। मेल [email protected] मो‌ फो 9816136653