फूलों की बात
साधना के कमरे से शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियां वातावरण को आनन्दमय बना रही थीं। मैं उसमें डूब कर मानों किसी अन्य ही लोक में विचरण कर रही थी। अचानक आवाज बन्द हो गई, इस व्यवधान ने मेरी तंद्रा भंग कर दी। साधना बहुत उदास लग रही थी, मुझे देखते ही बोल पड़ी, इस लाकडाउन ने सारी जिन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी है। बच्चे शास्त्रीय संगीत सीखने और कुछ गहन अध्ययन करने हेतु अभ्यास करने आते थे। सारा दिन घर में संगीतमय वातावरण रहता था अब मैं एक घंटा अभ्यास करने के बाद बन्द कर देती हूँ। वैसे भी संगीत साधकों और कलाकारों के लिए बहुत कठिन समय है। बच्चे आगे सीख नहीं पाते और कलाकारों को इस मंहगाई के जमाने में परिवार का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है उनको कहीं से पारिश्रमिक भी नहीं मिलता। साधना ने व्यथित होकर कहा।
साधना की उदासी और अवसाद बढ़ता जा रहा था। उसका ध्यान बंटवाने के लिए मैने कहा – साधना, क्या तुम भूल गई, उस दिन तुम्हारे फूलों को देख कर विनोद जी ने कहा था “साधना तुम अपने फूलों को कौन सी खाद देती हो जो यह इतने खूबसूरत और मुस्कुराते हुए लग रहे हैं, प्रभा भी तो नर्सरी से तुम्हारे साथ ही तो एक जैसे पौधे लाए थे। उस के फूल तो ऐसे मुस्कुराते हुए नहीं हैं।” “जी, मेरी टैरेस और इस बगिया के फूल हर रोज दिन भर शास्त्रीय संगीत सुनते हैं यही उन की खाद है और इसी लिए यह मुस्कुराते हैं। यह तो संगीत का प्रभाव है।” यह सुनते ही साधना मुस्कुराते हुए अपनी बगिया में चली गई उसकी उदासी और अवसाद फूलों की खुशनुमा महक में धुल चुका था ।
— डॉ मनोरमा शर्मा