ज्ञान ज्योति
अवकाश प्राप्त प्रोफेसर हूँ लेकिन दीवाल घड़ी पर नज़र बर बस चली ही जाती है सुबह होते ही लगता कालेज की ओर चल पड़ूं । मन बैचेन हो उठता है उठकर थोड़ा टहल आता हूँ । मन को बहलाने का हर संभव प्रयास कर रहा हूँ । लौटने पर बहू चाय का कप देकर चली जाती है । निगाह घड़ी पर ही अटक जाती है लगता है समय रुक सा गया है । सौरभ ने देखा सैर से दादाजी वापस आ गए हैं. सौरभ कापी किताब लेकर दादाजी के पास आकर पढ़ने बैठ जाता है ।
दादाजी आपका तो हर सब्जेक्ट स्ट्रांग है मुझे भी आपके जैसा गणितज्ञ बनना है ।
दादा जी एक बात कहूं , मैंने कमला आंटी के बेटे को कचरे से टूटी पेंसिल उठा कर फर्श पर लिखते देखा उसकी पढ़ाई में रुची देखकर मैंने उसे अपनी पुरानी कापी से पेज निकाल कर एक कापी बना कर उसे पेन के साथ लिखने के लिए देदी है । आपकी आज्ञा हो तो उसे अंदर बुला लू बाहर खड़ा है । आप पढ़ा देंगे ना मेरे प्यारे से …..दादू । बुला लो जल्दी से …. शरमाया हुआ दीपक अंदर घुसा तो प्रोफेसर साहब को लगा की ज्ञान की एक और ज्योति प्रज्ज्वलित हो गई।
— अर्विना गहलोत