दीवारें बोलती
दौर ए तनहाईयों में कोई सहारा होता
दीवारें बोलती और ज़िक्र तुम्हारा होता
उदासियों का है आलम शबे तनहाई में
खुशी के लमहें सा कोई तो शरारा होता
ख़्वाब की तरह टूटने लगा है दिल अब तो
काश उम्मीद का कोई तो सितारा होता
ख़बर है अपने रहगुज़र में यूं अकेले हैं
किसी के साथ में चलने का इशारा होता
दिल की धडकन भी ऐसी ज़ख़्मी है
लबों पे फिर भी तबस्सुम का गुज़ारा होता
यादें भी थक के हो गई है गुमशुदा जैसी
तनहां तनहाईयों का यूं न नज़ारा होता
— पुष्पा अवस्थी “स्वाती ”