कविता

माया और काया

इंसान भी अपने आपको
कितना भरमाता है,
सब सबको पता है
फिर भी गुमराह होता जाता है।
सब जानते हैं कि
माया और काया किसी के साथ
कभी नहीं जाते,
फिर भी इंसान जीवनभर
इसी के फेर अपने को रहते उलझाते।
माया-काया की महिमा भी
कितनी निराली है,
भ्रम का शिकार मानव जैसे
जीवनभर खाली खाली है।
हाय रे इंसान
तू भी कितना अजीब है,
जब पता है तुझे
कुछ लेकर जा नहीं पायेगा,
फिर भी इसी माया काया में फँसा
खोता रहता चैन की नींद है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921