अरुणाचल प्रदेश की तागिन जनजाति
अरुणाचल के अपर सुबनसिरी और वेस्ट सियांग जिले तागिन जनजाति के निवास क्षेत्र हैं। श्री सचिन राय ने अपनी पुस्तक “आस्पेक्ट्स ऑफ पदाम-मिनयोंग कल्चर” में लिखा है कि तागिन लोगों की मान्यता है कि वे ‘पेंजी’ नामक एक तिब्बती गाँव से देशांतरित होकर ‘तादादेज’ क्षेत्र में आए थे। श्री शुक्ला ने तागिन के संबंध में अपनी रिपोर्ट में एक दूसरी परंपरा का उल्लेख किया है। इस परंपरा के अनुसार तागिन भूमि सिपी और सुबनसिरी नदी के संगम पर स्थित थी। इन लोगों की धारणा है कि इनके पूर्वज ‘पुई पुदा’ नामक स्थान से आए थे जो सिपी के जलस्त्रोत से बहुत दूर में स्थित था। इस संबंध में स्पष्ट नहीं है कि वह स्थान ठीक-ठीक कहाँ पर अवस्थित था परंतु ऐसा विश्वास है कि यह स्थान सीमा के उस पार निम्मे अथवा तिब्बत में स्थित था। पुई पुदा से वे पुम्ता में आए और वहाँ से वहाँ से दिबेह में उनका आगमन हुआ। इनके मिथकीय पूर्वज सर्वप्रथम निदे लंकिंग नामक स्थान पर आए और यहीं पर उनकी मृत्यु हो गयी। उनका नाम आबो तानी था। आबो तानी के वंशज दिबेह से नारी नामक स्थान पर देशांतरित हुए और नारी से नालो आए जो वर्तमान सिग्गेन ग्राम का दूसरा नाम है। सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से तागिन जनजाति का आदि जनजाति के साथ साम्य है लेकिन सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से निशिंग जनजाति के साथ इनकी निकटता है। तागिन लोग भी अपने को आबो तानी की संतान कहते हैं। तागिन समाज में संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित है। परिवार का बुजुर्ग पुरुष परिवार का मुखिया होता है। परिवार में सामान्यतः माता-पिता, उनके पुत्र और अविवाहित पुत्रियाँ रहती हैं। कभी-कभी दादा-दादी और चाचा-चाची भी एक ही परिवार में रहते हैं। विवाह उपरांत लड़कियां अपने पति के घर चली जाती हैं। पति की मृत्यु के उपरांत यदि माँ दूसरी शादी नहीं करती है तो संपत्ति पर उसी का अधिकार होता है। वह उस संपत्ति का उपभोग तो कर सकती है परंतु उसे बेच नहीं सकती। पुत्रों के बीच उस संपत्ति का समान बंटवारा होता है पर विवाहित भाई अपने छोटे अविवाहित भाई को संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा दे देता है। पुत्रियों का पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता है।
अन्य पड़ोसी जनजातियों की तरह ही तागिन लोगों के घर भी बांस और फूस-पत्तों के होते हैं। इनके घर ढालुआं होते हैं। लकड़ी के खंभों पर बांस के फर्श होते हैं और घर जमीन से पाँच-सात फीट ऊपर होते हैं। फर्श के नीचे सुअरबाड़ा होता है। घर आयताकार होते हैं तथा कई कमरों में विभक्त होते हैं। प्रत्येक कमरे में अलग-अलग अंगीठी होती है। घर की तीन ओर बरामदे होते हैं। मकान के एक कोने पर भंडारगृह होता है। चावल, मांस, मछली,सब्जियाँ, जंगली कंद, मदिरा इत्यादि इनके प्रमुख आहार हैं। तागिन समाज मुख्यतः चार वर्गों में विभक्त है – निबु अथवा पुजारी, निते अथवा धनी वर्ग, ओपेन अथवा निर्धन वर्ग और न्यीरा अथवा गुलाम। मध्यवर्ग को ‘जेतोर’ कहा जाता है। पुजारियों को समाज में अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। यह वर्ग बहुत प्रतिष्ठित और प्रभावशाली है। धनी आदमी उसे कहा जाता है जिसके पास अधिक संख्या में मिथुन और सूअर हो, तिब्बती तलवार हो और त्योहारों के समय वह अधिक से अधिक पशुओं की बलि देता हो। पहले इस समाज में दास प्रथा थी। जो व्यक्ति या परिवार कबीला युद्ध में विजयी होता था वह पराजित दल के सदस्यों को बंदी बना लेता था और उससे अपनी सेवा कराता था लेकिन सामाजिक परिवर्तन और दास प्रथा के उन्मूलन के साथ धीरे-धीरे यह प्रथा समाप्त हो गई है। पुजारी अथवा न्यीबु केवल धार्मिक संस्कारों को संपन्न ही नहीं कराता है बल्कि वह तंत्र-मंत्र और आध्यात्मिक शक्तियों से भी युक्त होता है। वह चिकित्सक का कार्य भी संपादित करता है। वह रोगों का निदान ढूंढता है और असामयिक मृत्यु के कारणों का पता लगाकर उसका निदान करता है। दिव्य शक्तियों के द्वारा उसे यह ज्ञात हो जाता है कि रोग के लिए कौन -सी दुष्ट शक्ति उत्तरदायी है। तदनुसार वह उसे संतुष्ट करने का विधान करता है और बलि देता है। पुजारी का पद आनुवांशिक नहीं होता है। आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाला कोई भी व्यक्ति पुजारी बन सकता है। तागिन समाज का विश्वास है कि यह संसार ‘वियु’ से भरा हुआ है। वियु की कुदृष्टि के कारण ही असामयिक मृत्यु, रोग, निर्धनता इत्यादि का प्रकोप होता है। वृद्धावस्था की मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जाता है। अलग-अलग दुखों के लिए अलग-अलग प्रकार के वियु को ज़िम्मेवार माना जाता है और उनको प्रसन्न करने की विधियों में भी अंतर होता है। कुछ देवता सूअर की बलि पाकर प्रसन्न होते हैं तो कुछ मिथुन की बलि से संतुष्ट होते हैं। ऐसी मान्यता है कि सामाजिक नियमों की अवहेलना करने से भी देवता नाराज होते हैं और मानव को कष्ट देते हैं। वियु मानव के दैनिक कार्यों को प्रभावित और नियंत्रित करती है। ये बियू अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की होती है। दुष्ट किस्म की वियु रोग, शोक और दरिद्रता देती है जबकि अच्छी प्रवृत्तिवाली वियु सुख और समृद्धि देती है। तागिन लोग आत्मा के अस्तित्व में प्रबल आस्था रखते है। आत्मा को ‘यलो’ कहा जाता है। दोन्यी -पोलो को असीम शक्तियों से संपन्न कल्याणकारी देवता माना जाता है जो अनेक प्रकार से मानव की रक्षा और देखभाल करते हैं । पराशक्तियों के संबंध में तागिन लोगों की धारणा निशिंग समाज के समान है। तागिन मिथक के अनुसार सृष्टि के आरंभ में संसार में केवल शून्य था। समयान्तराल में पृथ्वी जैसी एक चीज ने इस खालीपन को भरा। इसे ‘जिमि अने’ कहा गया। उसने ‘सिसि अने’, मिदूर, निदो कोलो (आकाश) और सेंगे यारीन (औरत) तथा दांगे तारिन (मर्द) को जन्म दिया। बाद में पृथ्वी और आकाश अलग हुए और अन्य देवी- देवताओं की उत्पत्ति हुई। ‘सिसि अने’ से मनुष्य की उत्पत्ति हुई और ‘अपो अने’ से देवताओं का जन्म हुआ। ‘सि दोन्यी’ तागिन समाज का प्रमुख पर्व है। इसमें पृथ्वी और आकाश की पूजा की जाती है। ‘सि दोन्यी’ का अर्थ है पृथ्वी और सूर्य (सि-पृथ्वी, दोन्यी-सूर्य) I फसल काटने के बाद प्रति वर्ष यह पर्व सामुदायिक आधार पर मनाया जाता है। फसलों को नष्ट होने से बचाने, रोग और असामयिक मृत्यु से सुरक्षा और समृद्ध जीवन की कामना से यह पर्व मनाया जाता है Iइस अवसर पर मिथुन की बलि दी जाती है। सभी लोग एकत्रित होकर अपने इष्ट देव की प्रार्थना करते हैं। समाज का प्रत्येक सदस्य – आबालवृद्धवनिता इसमें भाग लेता है। सभी लोग यथाशक्ति इस त्योहार में योगदान करते हैं। कुछ लोग शारीरिक श्रम के द्वारा योगदान करते हैं तो कुछ लोग पैसे, मिथुन, अपोंग, चावल इत्यादि वस्तुएँ देते हैं। इस अवसर पर पारंपरिक नृत्य और गीत प्रस्तुत किए जाते हैं । तागिन लोग मृतक के शव को भूमि के नीचे दफना देते हैं। शव को दो दिनों तक घर में रखा जाता है ताकि निकट संबंधी उसके अंतिम दर्शन कर सकें। ऐसा विश्वास है कि स्वर्ग जाते समय बंदर मानव का सबसे अच्छा सहयात्री होता है। इसलिए एक बंदर को मारकर शव के साथ दफना दिया जाता है। शव को कपड़े, पत्ते आदि से ढँककर उस पर मिट्टी डाल दी जाती है।