हास्य व्यंग्य

क्या हो रा’ है  का खटराग !

“क्या हुआ ; क्या हुआ ;  क्या हो रा’ है “- एक साँस में वह तीनों लघु वाक्य बोल गया था! आंखों में घोर कौतूहल ; सब कुछ जान लेने की आतुरता और भीतर ही भीतर एक क्रूर मज़ा, वह मेरे बिल्कुल पास खड़ा था और मेरी ही तरह तीन छत छोड़कर होते हंगामे को देख रहा था। मेरी तरह वो भी कवि था, परन्तु उसकी उत्सुकता देखने लायक थी। जिंदगी में यह वाक्य “‘ क्या हो रा’  है,”  कई बार  और कई रूपों में हमारे सामने आता है और हरेक बार यही प्रतिध्वनित करता है कि पूछने वाले को,  जो हो रहा है, उससे संवेदना शून्य है  और जो हो रहा है, उससे उसमें मज़ा लेने की मानसिकता ज़बरदस्त है! क्या हो रा’ है, में हमेशा दूसरे की तफ़रीह लेने का भाव ज़्यादा होता है, बनिस्पत उसकी मदद के! हमें प्रतिक्षण  सूचनाएं ( दूसरे की) चाहिएं ; संवेदना का ख़र्चा कोई किसी पर नहीं करता और सहयोग तो भूल ही जाइये!

क्या हो रा’ है, सभी जानना चाहते हैं, परन्तु दूसरे का! अपना जानना शुरु कर दें, तो सभी संत ना बन जाएं और सब संत बन गये, तो भक्त कहाँ से आयेंगे ; भक्त नहीं होंगे, तो संत कहाँ से खायेंगे, सो संतों के अस्तित्व के लिए कुछ लोग आजीवन भक्त बनकर रहते हैं, इन्हीं भक्तों का  ‘ जप’ है-” क्या हो रा’ है! ”
” क्या हो रा’ है, ” यह प्रायः ‘ पूर्ण प्रश्नवाचक’ नहीं होता, इस व्यंग्य में भी इसीलिए व्यंग्यकार ने कहीं भी इस वाक्य के संग प्रश्नचिह्न प्रयुक्त नहीं किया। बात दरअसल यह है कि ” क्या हो रा’ है”  बोलने वाला प्रायः, जो हो रहा होता है, उसे स्वयं भी देख- समझ रहा होता ही है, परन्तु जब तक उस होते हुए पर दो- चार से झक ना मार ले, संतुष्टि कहाँ! यह ” क्या हो रा’ है,” कई बार बड़े अटपटे रूप से बैमौक़े  ही ‘ जपतु’ के श्रीमुख से निकल जाता है – एक कवि  मित्र के पिताजी के देहांत का समाचार मिला। हम मित्र लोग जब उसके घर पहुंचे, तो अर्थी उठाने की तैयारी चल रही थी। वह मित्र भी अर्थी के पास ही खड़ा था कि तभी उसके एक रिश्तेदार आये और वही ”  क्या हो रा’  है” दाग दिया। मन हुआ कहा जाए, जो हो रहा था, वह तो पूर्ण  हुआ, अब तेरी तैयारी है, फिर लगा, जो भीतर कहीं, कब का मर चुका हो, वो किसी की  मृत्यु से उपजी संवेदना भला कहाँ समझेगा! फोन पर ” क्या हो रा’ है,” यह सम्भवतः सबसे अधिक बोले-सुने जाने वाला खोखला वाक्य है! घोर स्वार्थी लोग इस वाक्य से बात  शुरु  करते हैं, जिसका अंत मतलब की बात से होता है। हमारे ” क्या हो रा’ है” से अधिक उसे अपना क्या हो रहा है, बताने की हुड़क होती है, वह हुड़क निकले, तो फिर उसे ध्यान आता है कि यार कॉल लम्बी हो गयी और फिर ” अच्छा फिर करते हैं बात” कहकर कॉल काट दी जाती है। बस ” क्या हो रा’ है,” इतने तक ही सीमित होता है।
लोग अस्पताल में मरीज़ देखने जाते हैं, मरीज़ को तीन- चार दिन वहीं भर्ती रहना है, फिर भी  ” क्या हो रा’ है”  बोला जाता है! जिससे बोला गया, वह क्या  कहे – हाथ में ग्लूकोज़ लगा है ; इंजेक्शन से दर्द है ; दवा से मुँह कडुवा है ; अस्पताल में घुटन है और तुझ  गधे को लात मारकर कमरे से बाहर निकालने का मन है आदि, आख़िर क्या बताया जाए, लेकिन  ” क्या हो रा’ है,” के जपतु को सब जानना है, यह उसे तुष्टि देता है! अस्पताल आये मरीज़ देखने और  सब ना जाना, तो फिर आने का फ़ायदा क्या हुआ भला, इसलिए ” क्या हो रा’ है”  हमेशा  फ़ायदे का सौदा भी है!
” क्या हो रा’ है,” इस वाक्य में ही जिसे यह कहा जा रहा है, उससे दूरी प्रकट होती है! जो हमारा है या जिसके निकट हैं हम, उसका क्या- क्या हो रहा है, हमें पता ही होता है, परन्तु जब हमें निकटता का दिखावा करना होता है, तो  इस ” क्या हो रा’ है” का सहारा लिया जाता है! बहुधा इस वाक्य को बोलने वाले को थोड़ा या सारा पता भी होता है कि जिससे यह बोल रहा हूँ, उसके जीवन में यह हो रहा है, परन्तु  सामने जब भोक्ता है, तो ” क्या हो रा’ है” कहना ही बनता है। अब यदि सामने वाला निर्लिप्तता से बोल दे कि”  कुछ ख़ास नहीं,” तो  प्रायः ” क्या हो रा’ है” का जपतु पलटकर कहता है-” लेकिन हमने तो सुना था …” तो इससे ज़ाहिर होता है कि ” क्या हो रा’ है” का जपतु, जो हो रहा है, उससे यत्किंचित पूर्व परिचित होता ही है!
सूचना के संजाल ने ” क्या हो रा’ है” को त्वरित बनाया है, इससे धैर्य और उसके सम्बद्ध सभी सकारात्मक, धराशायी हो चुका है। बहू द्वारा, ससुराल में जो हो रहा है, उसकी सूचना  से लेकर  समाचार माध्यम तक ” क्या हो रहा है”, उसे तत्काल प्रसारित करते हैं, इसका शायद ही कभी सुफल रहा हो! हम नहीं जानते कि अनेक बार कुछ पता चलने से अधिक अच्छा, ना पता चलना ही है। अभी सुबह कोई इमारत गिरी, अभी मीडिया ने दिखाना शुरु किया ; उम्मीद जतायी कि इमारत के सब लोग दबकर मर गये। जिन- जिन के अपने उस इमारत में थे, उनके दिल की सोचिये! सोच-सोचकर कई को दिल का दौरा पड़ा और कई के प्राण ही पखेरू हो गये। अब शाम को मीडिया ने बताया कि अमुक- अमुक जीवित हैं! सुबह जिनके मरने की सुनकर कोई मर गया, वे शाम को जीवित निकले, यह ” क्या हो रा’ है” के तत्काल प्रसारण और उस प्रसारण को तत्काल सच मानने का दुष्फल है! हाल ही में एक नशेड़ी अभिनेता की आत्महत्या को हत्या बताकर उसकी लिवइन गुमनाम  लुटेरी अभिनेत्री को प्रसार माध्यम हत्यारी बनाने पर तुले थे ; प्रतिदिन ” क्या हो रहा है” को नेशनल न्यूज़  बनाकर प्रसारित किया जा रहा था, सारा देश ” क्या हो रा’ है” के नशे में डूबा था कि प्रमुख जाँच एजेंसी ने घोषणा कर दी – अभिनेता जी ने आत्महत्या ही की थी! कितना समय और ऊर्जा ” क्या हो रा’ है”  पर बर्बाद की गयी, शायद ही किसी ने विचारा हो! कोरोना के  लॉक डाउन में  यदि हॉस्टल में रह  रहा विद्यार्थी सुदूर अपने घर अपनी हड्डी टूटने या साधारण  बुख़ार की भी सूचना दे, तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है, मातापिता का क्या हाल होगा! ऐसे में ” क्या हो रा’ है” को ना बताना धर्म है! अपने एक सर्विस सम्बद्ध केस के सिलसिले में मेरा दूसरे शहर के एक न्यायालय में जाना होता था। आजकल कोर्ट का केस नम्बर डिसप्ले बोर्ड  पर  लोग देखते ही रहते हैं। इधर केस में सुनवाई हुई, उधर मेरे मोबाइल का वाइब्रेट होना शुरु, अनन्त ज्ञात-अज्ञात लोग ” क्या हो रा’ है”  जानना चाहते थे । मुझे वक़ील से बात करनी होती थी, फिर स्टेशन तक की भागदौड़, परन्तु ” क्या हो रा’ है” के जिज्ञासु लगातार फोन करते रहते थे। ये सभी वे लोग थे, जिन्हें सिर्फ़ सूचना चाहिए थी और यहीं तक मैं उनका ‘अपना’ था, जबकि मेरे  अपने पिताजी और सच्चे शुभचिंतक मित्र  मेरे फोन का इंतज़ार करते थे।
जीवन में  सुख-दुःख, दोनों हैं! हम यदि किसी  को उसके  कष्ट में  सहयोग नहीं कर सकते, तो उसके  जीवन में क्या हो रहा है, यह जानने का हमें  कोई अधिकार नहीं  है! अब, यह बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है, परन्तु जब तक यह सृष्टि रहेगी, तब तक ” क्या हो रा’ है” के जिज्ञासु भी इस धरा पर रहेंगे ही, इसमें दो मत नहीं है। सो ” क्या हो रा’ है”  ही वो मंत्र है, जो  तिल का ताड़ बना, वह भी बना सकता है और प्रायः बनाता ही है, जो या जितना होता नहीं है, बस यही ध्यान रखने की बात है! वैसे, सुनिये, नाराज़ ना होइये, बस जाते- जाते, आप तो कहिये – क्या हो रा ‘ है! !

— डॉ. सम्राट् सुधा

डॉ. सम्राट् सुधा

◆जन्म : 6 जून, 1970 ◆प्रकाशन : वर्ष 1985 से राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशित। ◆प्रसारण : आकाशवाणी व बी. बी. सी. लन्दन रेडियो ◆ पुस्तक : उत्तर आधुनिकता - भूमंडलीकरण तथा शशि- काव्य ◆पुरस्कार : संचेतना सम्मान-2002, हिन्दी पत्रकारिता स्नातकोत्तर डिप्लोमा में स्वर्ण- पदक अलंकृत। ◆संपर्क : 94- पूर्वावली, गणेशपुर, रुड़की- 247667,उत्तराखंड ◆व्हाट्सएप : 9412956361 [email protected]