हँसी का समाजवाद
हँसना मनुष्य की आदिम क्रिया है I यह ईश्वर की खूबसूरत देन है I इसमें मनुष्य के कष्टों को दूर करने की असीम शक्ति होती है I चिकित्सकगण कहते हैं कि हंसने से फेफड़ों का व्यायाम होता है, तनाव से मुक्ति मिलती है और मन का बोझ हल्का होता है I आदिम युग में मानव ठहाके लगाकर हँसता था क्योंकि वह सभ्यता से दूर था I जैसे – जैसे मनुष्य सभ्य होता गया, उसकी हँसी मंद होती गई I हँसी में सभ्यता की घुसपैठ हो गई I छप्परफाड़ हँसी की जगह मुस्कराहट ने ले ली I सभ्यता के विकास के साथ- साथ हँसी में विकार आता गया, हँसी में किफायतीपन आ गया, उसमें आर्थिक गणित का प्रवेश हो गया I अब लोग अपने बजट और आवश्यकता के अनुसार हंसते हैं गोया हँसी पर भी आयकर लगता हो I अब अपने बजट के अनुसार कोई अधर के एक कोने में मुस्कुरा देता है, कोई अपनी आँखों से ही हंसने का कर्तव्य निभा देता है और कुछ लोग अपनी जरूरत पर ही बतीसी दिखाते हैं I आवश्यकतानुसार हँसनेवाले की हँसी को अवसरवादी हँसी कहा जाता है I हँसी हँसी में फर्क होता है I दूसरों पर तो सभी हँसते हैं पर वह मनुष्य स्तुत्य है जो स्वयं पर हँसता है I एक हँसी में उपहास होता है तो दूसरे में फक्कड़पन, एक में छिद्रान्वेषण होता है तो दूसरे में आत्मावलोकन, एक में मन का बौनापन होता है तो दूसरे में आकाश की ऊंचाई I दूसरों पर हँसनेवाला व्यक्ति जगत की सभी वस्तुओं में खोट देखता है परन्तु स्वयं पर हँसनेवाला व्यक्ति सभी प्राणियों में गुण और अच्छाई देखता है I एक हँसी में नकारात्मकता होती है तो दूसरी में सकारात्मकता I गोस्वामी तुलसीदास जब कहते हैं ‘’मोंसो कौन पापी खलकामी’’ तब उनका महत्तम व्यक्तित्व प्रकट होता है I कबीरदास भी खुद को पापी कहते हैं I इससे उनके पुण्यात्मा स्वरूप के दर्शन होते हैं I कबीर लोगों की मूर्खता पर हँसते हैं, मुल्ला को जोर – जोर से अल्लाह को पुकारते देख उन्हें हँसी आती है I क्या अल्लाह बहरे हैं जो मन की आवाज नहीं सुन सकते हैं I कबीर की हँसी आत्मज्ञानी की हँसी है I बच्चों के मन पर कृत्रिम आवरण और फर्जी सभ्यता का मैल नहीं होता है I इसलिए वह ठहाके लगाकर हँसता है I उसकी हँसी निर्दोष होती है, उसमें छल- प्रपंच, स्वार्थ और अपने – पराये का बोध नहीं होता है I बच्चों की हँसी देखकर माताएं परमात्मा दर्शन की इच्छा का भी परित्याग कर सकती हैं I
रावण अपने बल और पौरुष पर हँसता था, उसकी हँसी में अहंकार था I इसलिए उसका सर्वनाश हो गया I अपनी कमियों पर हँसना महापुरुषों का भूषण है, अपनी खूबियों पर हँसना- इतराना अभिमानी के लक्षण हैं I महापुरुषों की हँसी में आत्म सुधार की भावना होती है जबकि अभिमानी की हँसी में पौरुष का मिथ्या दंभ I दंभी हँसी विनाशकारी होती है तथा अनर्थ का कारण बनती है I द्वापर युग में द्रौपदी की हँसी महाभारत युद्ध का कारण बनी I महाभारत युद्ध के समय महारथियों की अक्षमता पर बर्बरीक भी हँस रहा था I जब दुर्योधन भगवान श्रीकृष्ण को बांधने चला था तो उसकी मूर्खता पर भगवान को भी हँसी आ रही थी I क्या दुर्योधन सम्पूर्ण सृष्टि के संचालक और नियंता लीलाविहारी को बाँध सकता था !! लीलावतार श्रीकृष्ण को उस समय भी हँसी आई थी जब अर्जुन के बाण मारने पर महारथी कर्ण का रथ मीलों पीछे चला जाता था जबकि कर्ण के बाण मारने पर अर्जुन का रथ दो इंच पीछे हटता था I अर्जुन के दंभ पर श्रीकृष्ण को हँसी आ रही थी क्योंकि उसके रथ पर भगवान स्वयं तीन लोकों का भार लेकर बैठे थे और साथ में पवनपुत्र हनुमान का अतुलनीय भार भी था, लेकिन कर्ण अपने रथ पर अपने आत्मबल के साथ निपट अकेला था I चुनाव के समय जनता के सामने नेताजी भी हँसते हैं I उनकी हँसी में कुटिलता, कृत्रिमता, धूर्तता और बेचारगी का अजीब घालमेल होता है I उनकी हँसी में यह संदेश निहित होता है कि इस बार पुनः वोट देकर सत्ता के दरवाजे पर पहुंचाओ और हर बार की भांति इस बार भी मूर्ख बनो I विजयश्री मिलने के बाद मैं पुनः ठेंगा दिखाऊंगा I जीतने के बाद तो हमारी हँसी अदर्शनीया हो जाएगी……..दुर्लभ और शासकीय हंसी…… I हँसी के और भी अनेक रूप में हैं I थाने में मुद्रा मोचन के अहिंसक व्यापार को देखकर दीवार पर टंगे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अपने सपनों के भारत और उसके सपूतों पर हँसते हैं I ग्राहकों को मिलावटी वस्तु देकर सेठजी भी हँसते हैं I पीड़ित परिवारों के मुख का निवाला छीनकर अपना बैंक बैलेंस बढ़ानेवाले बाढ सूखा राहत समिति के कर्ताधर्ता भी हँसते हैं – दीन – हीनों की दुर्दशा और अपनी चतुराई पर I यह बर्बर हँसी है I
आजकल प्राकृतिक हँसी का अकाल हो गया है I हँसी संकटग्रस्त हो गई है I उसका अस्तित्व खतरे में है I हमारा अर्थशास्त्र हमारी हँसी पर हावी होता जा रहा है I इसलिए हम अपने होठों को हिला – डुलाकर अपने सामाजिक दायित्व को पूरा कर लेते हैं I हँसी का अभाव परिस्थितिजन्य भी है I जब चतुर्दिक लूट, हत्या, बलात्कार की चीखें सुनाई पड़ती हों तो हँसना और हँसी की मांग करना बेमानी है I जब आम जनता रोटी – दाल का प्रबंध करने में बेहाल हो तो हँसी कैसे आए ? लेकिन हँसना आवश्यक है क्योंकि पीड़ा को हास्य भाव से ग्रहण करने पर उसकी तीव्रता कम हो जाती है I हँसी में रचनात्मकता होती है, दुनिया को सुंदर से सुंदरतर बनाने की आकांक्षा होती है I हँसना मात्र हँसना नहीं है I इससे संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रकटीकरण होता है, हँसने से पूरी मानसिकता बाहर आ जाती है, व्यक्ति की समूची पारिवारिक -सामाजिक पृष्ठभूमि अभिव्यक्त हो जाती है I जीवन में इतनी तिक्तता, कटुता एवं विसंगति आ गई है कि यदि मानव उन्हें हँसकर ग्रहण नहीं करेगा तो उसका जीवन तनावपूर्ण और त्रासद बन जाएगा I हँसने से मन का विष बाहर आता है और बाहर का अमृत भीतर प्रविष्ट होता है I इसलिए खूब हँसना, खूब हँसाना और हँसते – हँसते लोट – पोट हो जाना समय की मांग है I