ग़ज़ल
अक्षरों के सरदार लुटेरे हो गए हैं।
लगभग सब अख़बार लुटेरे हो गए हैं।
आँखों-आँखों में ही सब कुछ ले लेते,
आँखों के दीदार लुटेरे हो गए हैं।
दरियाओं के मांझी आपस में मिल गए,
आर लुटेरे पार लुटेरे हो गए हैं।
अर्चन पूजा में भी चोरी कर लेते,
सजदे के सत्त्कार लुटेरे हो गए हैं।
क्या-क्या रंग दिखाए देख सियासत ने,
दुश्मन-रहबर-यार लुटेरे हो गए हैं।
हर दरवाज़े वाले ताले तोड़ लिए,
घर के पहरेदार लुटेरे हो गए हैं।
अभिभावक अब वृ(स्थानों में रहते,
मोह ममता के प्यार लुटेरे हो गए हैं।
पुत्रों-बहुयों की मैं बात नहीं करता,
मापे रिश्तेदार लुटेरे हो गए हैं।
सूखऱ् गुलाबी फूलों को भी नोच लिया,
रखवाले थे खार लुटेरे हो गए हैं।
अपनी भाषा भूल गए परदेशों में,
हाकम के संस्कार लुटेरे हो गए हैं।
सूखऱ् गुलाबी होठों पर इक मक़तल है,
हँसीं के किरदार लुटेरे हो गए हैं।
सज्जन ऐसी सच्चाई भी मत लिखना,
तेरे भी आचार लुटेरे हो गए हैं।
‘बालम’ भरत नहीं अब राम नहीं मिलते,
भाईयों के परिवार लुटेरे हो गए हैं।
— बलविन्दर ‘बालम’