अन्तर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस (3 दिसम्बर)
हमारे समाज में दिव्यांगों को हमेशा दयनीय दृष्टि से देखा जाता रहा है। दिव्यांगों ने अनेक क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद उनके प्रति वही पुराना नज़रिया आज भी बरक़रार है।संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1992 में हर वर्ष 3 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस के रूप में मनाने घोषणा की गई थी। जिसका मकसद समाज के तमाम क्षेत्रों में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों को बढ़ावा देना और राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में दिव्यांग लोगों के बारे में जागरूकता पैदा करना था। इसके बावजूद हम में से अधिकांश लोगों को तो इस बात का पता नहीं है कि हमारे के आस-पड़ोस कितने दिव्यांग रहतें हैं। उन्हे समाज में बराबरी का अधिकार मिल रहा है कि नहीं। किसी को इस बात की कोई फिक्र नहीं हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारत में दिव्यांग आज भी अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित हैं।
दिव्यंगों का मज़ाक बनाना एक गै़र ज़िम्मेदाराना व्यवहार है। दुनिया के तकरीबन 8 % लोग दिव्यांगता का शिकार हैं। दिव्यांगता अभिशाप नहीं है क्योंकि शारीरिक अभावों को यदि प्रेरणा बना लिया जाए तो दिव्यांगता व्यक्तित्व विकास में सहायक हो जाती है। यदि सोच सही रखा जाए तो अभाव भी विशेषता बन जाती है।जो लोग किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाते है अथवा जो जन्म से ही दिव्यांग होते है। हमारे आस पास कई ऐसे व्यक्ति है जिन्होंने अपनी दिव्यांगता के बाद भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है।यदि दिव्यांग व्यक्तियों को समान अवसर ,प्रोत्सब और प्रभावी पुनर्वास की सुविधा मिले तो वे बेहतर जीवन व्यतीत कर सकते हैं।हमारे देश में दिव्यांगो की सहायता के लिए अनेक सरकारी योजनाएं चल रही हैं लेकिन समुचित व्यवस्था के बिना अबतक मात्र आधे दिव्यांगों को ही *दिव्यांगता प्रमाण पत्र मुहैया कराया जा सके हैं। ऐसे में दिव्यांगो के लिए सरकारी सुविधाएं हासिल करना मज़ाक बनकर रह गया हैं।सरकारी कार्यालयों और अस्पतालों के कई दिनों तक चक्कर लगाने के बाद भी लोगों को मायूस होना पड़ता है। हालांकि सरकारी दावे कहते हैं कि इस प्रक्रिया को काफी सरल बनाया गया है, लेकिन हक़ीक़त इससे काफी दूर नज़र आती है।
दिव्यांगता का प्रमाणपत्र जारी करने के सरकार ने जो मापदण्ड बनाए हैं। अधिकांश सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक उनके अनुसार दिव्यांगो को दिव्यांग होने का प्रमाण पत्र जारी नहीं करते हैं जिसके चलते दिव्यांग व्यक्ति सरकारी सुविधायें पाने से वंचित रह जाते हैं। सरकार द्वारा देश में दिव्यांगो के लिए कई नीतियां बनाई हैं उन्हें सरकारी नौकरियों,अस्पताल, रेल, बस सभी जगह आरक्षण प्राप्त है। दिव्यांगो के लिए सरकार ने पेंशन की योजना भी चला रखी है। लेकिन ये सभी सरकारी योजनाएं उन दिव्यांगो के लिए एक मज़ाक बनकर रह गयी हैं। जब इनके पास इन सुविधाओं को हासिल करने के लिए दिव्यांगता का प्रमाणपत्र ही नहीं हैं।भारत में दिव्यांगो को दी जाने वाली सुविधाएं मात्र कागज़ों तक ही सीमित हैं। केन्द्र सरकार ने देशभर के दिव्यांगों को केन्द्र सरकार में सीधी भर्ती वाली सेवाओं के मामले में दृष्टि बाधित, बधिर और चलने-फिरने में दिव्यांग लोगों को उम्र में 10 साल की छूट देकर एक सकारात्मक क़दम उठाया है।दिव्यांगता शारीरिक या मानसिक हो सकती है परन्तु सबसे बड़ी दिव्यांगता हमारे समाज की उस सोच में है जो दिव्यांग जनों को हीन दृष्टि से देखती है। जिसकी वज़्ह से दिव्यांग ख़ुद को असहज महसूस करते हैं।अब समय आ गया है कि दिव्यांगों को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जाये । समाज उन्हें अपना हिस्सा समझे। इसके लिए एक व्यापक जागरूकता अभियान की ज़रूरत है। हाल के वर्षों में दिव्यांगो के प्रति सरकार की कोशिशों में तेज़ी आयी है। दिव्यांगों को शिक्षा से जोड़ना निहायत ज़रूरी है। मूक-बधिरों के लिए विशेष स्कूलों का अभाव की वज़्ह से तमाम विकलांग ठीक से पढ़-लिखकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बन पाते हैं।आधुनिक होने का दावा करने वाला हमारा समाज अब तक दिव्यांगो के प्रति अपनी बुनियादी सोच में परिवर्तन नहीं ला पाया है। अधिकतर लोगों के मन में दिव्यांगों के प्रति उपेक्षा का भाव ही रहता है। ऐसे भाव दिव्यांगो के स्वाभिमान पर चोट करते हैं।देश में दिव्यांगो की इतनी बड़ी तादाद होने के बावजू़द उनकी परेशानियों को समझने और उन्हें ज़रूरी मदद देने में सरकार और समाज दोनों नाकाम दिखाई देते हैं।
— अब्दुल हमीद इदरीसी