ग़ज़ल
एक ग़म कब तलक उठाएं हम।
रोज़ करते नहीं ख़ताएं हम।
रूठने का नहीं सबब जब कुछ,
बेसबब क्यूँ उसे मनाएं हम।
कामयाबी न हाथ आ पायी,
कर चुके अनगिनत सभाएं हम।
याद दिल में रची बसी उनकी,
किस तरह से उन्हें भुलाएं हम।
रूठने का नहीं सबब जब कुछ,
बेसबब क्यूँ उसे मनाएं हम।
जुर्म हरगिज़ नहीं है जब कोई,
पा रहे क्यूँ भला सज़ाएं हम।
— हमीद कानपुरी