गजल
उसी की फिर मैं चर्चा कर रहा हूं।
के अपने जख्मों को और गहरा कर रहा हूं।
कभी कुछ कहकर जो कायम ही नहीं है
क्यों उनकी बात पर भरोसा कर रहा हूं।
ये अंदर ही अंदर मुझको खा रहा है
बेवफा के बारे क्यों सोचा कर रहा हूं
झगड़ने की तुमको आदत हो गई है
जमाने भर से झगड़ा कर रहा हूं
क्या पता मेरा नाम तुम्हें अब याद होगा
मगर मैं क्यों तुम्हारे बारे में सोचा कर रहा हूं