मौत के सामने थी खड़ी जिंदगी।
आँखों के आँसुओं को छुपाती रही।
लोगों के सामने मुस्कुराती रही ।
डर रही थी कि कल फिर से हो या न हो,
फिर भी जीवन के सपने सजाती रही।
रात के बाद ही आती है हर सुबह।
मन को धीरज ये कहकर बंधाती रही।
काँपते थे अधर मेरे कहने से कुछ।
फिर भी लिख कर ग़ज़ल गुनगुनाती रही।
मौत के सामने थी खड़ी जिंदगी।
लड़ के ताकत स्वयं का दिखाती रही।
पल दो पल की लगती थी है जिंदगी।
फर्ज अपना मगर मैं निभाती रही।
छोड़ कर जाऊँगी मैं कहीं भी नहीं।
झूठा एहसास सबको कराती रही।
यूँ किरण भी गई थी सिहर उस घड़ी ।
किन्तु अपनों के संग खिलखिलाती रही।