सदाबहार काव्यालय: तीसरा संकलन- 21
तीन नज़्में
(1)
मेरे रास्ते में आ कर मुझको रास्ता भुला दिया,
यूँ जुल्म मुझ पे करके तुमने क्या पा लिया।
यूँ तो शख्स बहुत मिलते जीवन में चलते-चलते,
पर ऐसा कौन है होता, बिना शर्त जो भा गया।
आता नहीं है संसार में वैसा ही पल दोबारा,
उनके संग में हँस कर था जो बिता दिया ।
वीरानियों ने पूछा कब तक बचेगा मुझसे,
जब तक रहें वो दिल में, हंस के बता दिया।
न बार-बार पूछो क्यों याद करते हो उन्हें,
क्या भूल जाने को उन्हें दिल में था बिठा लिया।
(2)
साथ ले के चल दूँगा शिकवों का पुलिंदा,
फिर नहीं मिलेगा मेरे जैसा बंदा।
दोस्ती तो दोस्ती, दुश्मनी भी निभाई मैंने,
बन जाये चाहे वो मेरे गले का फंदा।
दो पल की हँसी के लिए, रोये हम उम्र भर,
फिर पूछते हो हमसे कैसे रह गए जिंदा।
मिट्टी हैं हम , मिट्टी को ही पूजा था हमने,
खुद को मान कर खुदा क्यों हों शर्मिंदा।
(3)
दर्द को हराना होगा,
ग़मों को भगाना होगा।
उजड़ने देना न चमन,
गुलों को खिलाना होगा।
जो दिल से बन जायें,
वो रिश्ते निभाना होगा।
खुली आँखों से सोने वालों को
झकझोर के जगाना होगा।
जो सुनते न हों किसी की,
उन्हें भी तो सुनाना होगा।
डॉ० अनिल चड्डा ‘समर्थ’
संक्षिप्त परिचय-
नाम : डॉ० अनिल चड्डा ‘समर्थ’
जन्मतिथि : 18 अक्तूबर, 1952
शिक्षा : बी.एस.सी., एम.ए.(हिन्दी), पी.एचडी.
भारत सरकार के संचार मंत्रालय से 2012 में निदेशक के पद से सेवानिवृत। 1972 में विज्ञान में स्नातकीय उपाधि प्राप्त करके संघ लोक सेवा में कार्यरत हुये। अपने कार्यकाल में विभिन्न पदों पर पदोन्नति पाते हुये विभिन्न मंत्रालयों में सेवा की। भारत सरकार की सेवा में रहते हुये बचपन से लगी काव्य रचना की धुन की साधना करते हुये 1986 में हिन्दी में एम. ए. की, फिर 1993 में पी.एचडी. पूरी की।
इस बीच अनेक कविताओं की रचना की, जिन्हें इनके ब्लागों https://anilchadah.blogspot.com, https://anubhutiyan.blogspot.in
पर पढ़ा जा सकता है। इनकी रचनायें साहित्यकुञ्ज, शब्दकार एवं हिन्दयुग्म जैसी ई-पत्रिकाओं के अतिरिक्त सरिता, मुक्ता , इत्यादि पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही हैं ।
इनका कविता संग्रह ‘कुछ ज्ञात कुछ अज्ञात’ pustakbazar.com पर, ‘देश के बच्चे – मेरी कवितायें’ pothi.com पर एवं
https://kdp.amazon.com/en_US/bookshelf पर (i) मेरे जीवन की पाँच कहानियाँ, (ii) हृदय की कलम से (iii) मन की बातें जग भी जाने (iv) होनहार हैं हम बच्चे उपलब्ध हैं।
हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के लिए और अपने जैसे अनेक हिन्दी रचनाकारों को मंच देने के लिए इन्होंने अगस्त, 1996 से ऑनलाइन साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्यसुधा’ की शुरुआत की।
अनिल भाई की निराली नज़्मों के बीच नज़्म का एक अंदाज़ यह भी—-
”दिल की हालत क्या है, कैसे बताएं उलझन बड़ी है,
बताई भी नहीं जाती, छिपाई भी नहीं जाती.”