सामाजिक

खुशी किसके साथ – बुज़ुर्गो के संग या अकेले में ?

विषय अच्छा है व हमारी परंपरागत चली आ रही संस्कृति से भी जुड़ा है, जो संयुक्त परिवार में बुज़ुर्गो के साथ रहना ज़्यादा अच्छा मानती है।
भले ही आधुनिक संस्कृति व रिवाज़ एकाकी परिवार का हो गया हो, जिसमें केवल तीन या चार सदस्य ही रहते हैं, पर यह सत्य है कि संयुक्त परिवार को बहुत अच्छा माना गया है। घर में बड़े-बुज़ुर्ग हों तो उनकी छत्रछाया में सुरक्षा रहती है। उनके अनुभव परिवार के सदस्यों के काम आते हैं। उनसे ज्ञान प्राप्त होता है। यदि घर में बच्चे अकेले हैं, तो बुज़ुर्गो यानी दादा जी-दादी जी, चाचा-चाची के साथ उनका रहना सुरक्षित होता है।
वैसे देखा जाये तो मनुष्य अपने अनुकूल या परिस्थितियों वश अकेला रहता है, पर उसे भी संभवत: बुज़ुर्गो के साथ ही रहना पसंद होता है। संग या अकेले रहते हुये परिस्थिति या मन: स्थिति कैसी है, हर खुशी उसी पर निर्भर करती है। कई लोग तो सुख-सुविधाएँ, धन-संपत्ति व हर तरह के ऐशो-आराम व अनुकूल मन:स्थिति होते हुये भी सुखी या दुखी होते देखे गये हैं। आपने अक्सर महसूस किया होगा कि एक मज़दूर या एक किसान मेहनत-मज़दूरी करके जब शाम को घर आता है तो वह परिवार में उत्साहित होता है और बहुत खुश रहता है। उस समय वह निश्चिंत होता है। वहीं जब एक अमीर, जिसके आगे-पीछे नौकर-चाकर रहते हों, जो पूर्णतया सुख-सुविधा भोगी होता है, वह खिन्न मन रहता है। यह सब आंतरिक मन पर भी निर्भर करता है। निश्चिंत व्यक्ति तो सदा ही खुश रहता है। परिवार भरा-पूरा हो, जहाँ प्रेम-प्यार, सहयोग-समन्वय, मिठास, सौहार्द, आदर-मान, सम्मान हो, तो मनुष्य सदा ही खुश रहता है। सुखी-संपन्न व्यक्ति यदि अकेला हो तो उसकी खुशियाँ धूमिल हो जाती हैं, वह उदास हो जाता है, क्योंकि उस सब सुविधाओं को भोगने वाला कोई होता नहीं है। अकेले में न तो वह अपना मनोरंजन कर पाता है और न ही किसी से मन की बात कह सकता है, फिर भी समय के अनुसार वह खुश रहने का प्रयत्न भी करता है। भरे-पूरे परिवार में व बुज़र्गों के साथ व्यक्ति खुश रहता है, भले ही बुज़ुर्ग कमाई न करते हों, कुछ सामान न लाते हों, पर उनकी अच्छी व ज्ञान भरी बातों से कोई भी व्यक्ति खुश रहता है, क्यों बड़े-बुज़ुर्गो बहुत ही शुभचिंतक होते हैं व वे कभी किसी का बुरा नहीं चाहते, बल्कि अपने आशीर्वचनों व आशीर्वाद से औरों को नवाज़ते हैं।
सामाजिक प्राणी होने के नाते अकेला इंसान भले ही कितनी कोशिश खुश रहने की करे, पर जो प्रेम, अपनत्व, आत्मिक सुख, समर्पण, सेवा की भावना बुज़ुर्गो के साथ पनपती है, वह सब उसे एकाकी जीवन में कदापि मिल नहीं सकती। यह भी सत्य है कि भले परिवार में कभी-कभी झगड़ा भी होता हो, तब भी आपसी स्नेह, प्यार, दुलार, सुख-शांति, सही मार्वगदर्हशन, सद्गुण, एकता की भावना वह बुज़ुर्गो की छत्रछाया में ही प्राप्त करता है। परिस्थितियों के हाथों मजबूर, नौकरी के कारण या अपनी स्वतंत्रता के लिए मनुष्य भले ही अकेला रहने का मार्ग चुन ले, आख़िर उसे भी संयुक्त परिवार या बुज़ुर्गों के साथ की आवश्यकता महसूस होने लगती है। वे भी अपनी खुशियाँ, अनुभव व उपलब्धियाँ उनके साथ बाँटना चाहते हैं। यह मन तो चंचल है, यहाँ-वहाँ दौड़ता है, अकेला व उन्मुक्त रहना चाहता है, पर बुज़ुर्गो का ज्ञान कहीं से वह प्राप्त भी नहीं कर सकता। उनके साथ रहने जैसा सुख कोई दे भी नहीं सकेगा। बुज़ुर्ग हमारा मान-सम्मान, गौरव हैं। उनके साथ रहने कर हम आत्म संतुष्टि महसूस करते हैं। बुज़ुर्गां के साथ रह कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा लेते हैं, क्योंकि उनके पास अनुभवों व ज्ञान की पोटली होती है। बुज़र्गियत हमारी धरोहर है, क्योंकि जब हम बुज़ुर्ग बनेंगे तो ठीक उन्हीं की तरह हम भी होंगे और हम भी अपने बच्चों को अपना ज्ञान व अनुभव बाँटेंगे और हमारे बच्चे हमारा भी साथ निभायेंगे।
बुज़ुर्गो के साथ बच्चे सामंजस्य भी स्थापित कर लेते हैं, क्योंकि बुज़ुर्ग भी कभी-कभी बच्चों की तरह बन कर परिवार का मनोरंजन भी करते हैं, उन्हें अच्छी-अच्छी सीख देने वाली कहानियाँ भी सुनाते हैं, जिससे वे आत्मिक सुख-शांति महसूस करते हैं। बुज़ुर्गो के साथ मनुष्य को एकाकीपन का भय भी नहीं सताता। वह स्वयं को खुश भी रख पाता है। इसलिए बुज़ुर्गो के संग रहने में ही असली खुशी है, और संग रहने में लाभ भी हैं। इन बातों को मैंने बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, ज़रा आप भी सोचिए व महसूस करिए वैसी सुरक्षा, अनुभव, मनोरंजन, आत्मिक प्यार, सद्भाव, एकता, विश्वास आदि।

— रवि रश्मि ‘अनुभूति’