धूप-छाँव
कभी तुम धूप लगते हो कभी तुम छाँव लगते हो,
शहर की बेरुखी में तुम तो अपना गाँव लगते हो।
बताओ मैं भला कैसे कहूँ अपनों ने ठुकराया,
सभी राहें हुई जो बंद अंतिम ठाँव लगते हो।
कभी जब बात करते हो लुटे अधिकार की अपने,
सगे सम्बंधियों के बीच कौआ-काँव लगते हो।
जो कहते थे इरादे देख अंगद-पाँव-सा तुमको,
उन्हीं के वास्ते अब तुम तो हाथीपाँव लगते हो।
तुम्हारे बिन अपाहिज़-सा पड़ा रहता अवध बेसुध,
तुम्हीं तो चेतना बल बुद्धि दोनों पाँव लगते हो।
— डॉ अवधेश कुमार अवध