ग़ज़ल
पैसों की ललक देखो दिन कैसे दिखाती है
उधर माँ बाप तन्हा हैं इधर बेटा अकेला है
रुपये पैसों की कीमत को वह ही जान सकता है
बचपन में गरीवी का जिसने दंश झेला है
अपने थे ,समय भी था ,समय वह और था यारों
समय पर भी नहीं अपने बस मजबूरी का रेला है
हर इन्सां की दुनियाँ में इक जैसी कहानी है
तन्हा रहता है भीतर से बाहर रिश्तों का मेला है
समय अच्छा बुरा होता , नहीं हैं दोष इंसान का
बहुत मुश्किल है ये कहना किसने खेल खेला है
जियो ऐसे कि हर इक पल ,मानो आख़िरी पल है
आये भी अकेले थे और जाना भी अकेला है
— मदन मोहन सक्सेना