ग़ज़ल
रब की ये मंज़ूरी भी हो सकती है।
आधी हसरत पूरी भी हो सकती हैं,
पहले व्यर्थ समझ छोड़ा हमने जिसको,
आज वो बात ज़रुरी भी हो सकती है।
राम रखे रखतें हैं हरदम मुख में जो,
हाथ में उनके छुरी भी हो सकती है।
दिन काले गुज़रेगें बस हिम्मत रक्खो,
आज रात सिंंदूरी भी हो सकती है।
ज़िद जैसी लगती जो उसकी फितरत में
वो शायद मजबूरी भी हो सकती है।
शिद्दत से चाहेगा ‘जय’ तो है मुमकिन,
अब हासिल कस्तूरी भी हो सकती है।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’