लघुकथा

दुर्भेद्य

मालिक मजदूरी करने हम आए हैं, हमारा बेटा नहीं जो आपने इसके सिर पर बोझा रखवा दिया… आग्नेय दृष्टि से महेश ने ठेकेदार को ऐसे देखा मानों उसे कच्चा ही निगल जाएगा।
सादे मिट्टी का ढेला दिखने वाले मजदूर के इस रूप को देखकर ठेकेदार भौचक्का दाएं बाएँ झाँकने लगा। फिर अपनी झेंप मिटाते बेशरमी के साथ महेश को समझाने लगा “अरे महेशवा अभी से काम सिखाओ इसको, दो जून की रोटी कमाने आ जाएगी, तो तुम्हे बुढ़ापा में  खटना नहीं होगा और बड़े होकर इसे कौन सा लाट साहब बनना है ।”
प्रत्येक शब्द में ज़हर बुझे तीर जैसा अपमान घनघना रहा था, बंदूक की गोली की तरह कोई चीज मस्तिष्क की नसों को चीरती जा रही थी, ठेकेदार  ने उसकी मज़बूरी का मखौल उड़ाया था जो उसके बर्दाश्त के बाहर हो रहा था। दाँत पीसते  हुए महेश ने जवाब दिया “नहीं मालिक जो काम हमने किया वो हमारा बेटा नहीं करेगा, इसके बाप के हाथ में अभी इतना दम है कि इसे ईंट गारे नहीं उठाने पडेंगे। मैं इसे पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगा…”  महेश की बातें पूरी होने के पहले ही ठेकेदार ने एक लंबा सा कश खींचा और धुआँ फेंकते हुए कहा, “बड़ा आदमी, महेश औकात देखकर बात करो, दिन में सपना मत देखो।”
मालिक की बातें सुनते ही पिता का दिल रो गया, स्वाभिमान पर जैसे किसी ने कुठाराघात किया हो…. “मालिक सपने देखने का अधिकार केवल पैसे वालों को ही है क्या ? जानता हूँ, अपने बच्चे को पढ़ाने में बहुत बड़ी परीक्षा देनी होगी मुझे, कई मुश्किलें सामने आएंगी, पर हुजूर पहाड़ जैसी रुकावट हैं तो मंजूर है हमको,एक एक कर पत्थर हटा अपने बच्चे की ज़िन्दगी बनाएँगे ।”
ठेकेदार के मुँह पर करारा तमाचा मारते पिता ने बेटे को सीने से लगा लिया, भाग्य के भरोसे बैठना उसे मंजूर नहीं था अब। आज चट्टान में छेद करने की जिद ठानी थी महेश ने, आखिर पिता के स्वाभिमान को ठेस जो लगी थी।
— किरण बरनवाल

किरण बरनवाल

मैं जमशेदपुर में रहती हूँ और बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय से स्नातक किया।एक सफल गृहणी के साथ लेखन में रुचि है।युवावस्था से ही हिन्दी साहित्य के प्रति विशेष झुकाव रहा।