स्टिक का जादू
1927 ई. में इसे लांस नायक बना दिए गए। सन 1932 ई. में लॉस ऐंजल्स जाने पर नायक नियुक्त हुए। सन 1937 ई. में जब भारतीय हाकी दल के कप्तान थे, तो उन्हें सूबेदार बना दिया गया। जब द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ, तो सन 1943 ई. में ‘लेफ्टिनेंट’ नियुक्त हुए और भारत के स्वतंत्र होने पर सन 1948 ई. में कप्तान बना दिए गए। केवल हॉकी के खेल के कारण ही सेना में उनकी पदोन्नति होती गई। 1938 में उन्हें ‘वायसराय का कमीशन’ मिला और वे सूबेदार बन गए। उसके बाद एक के बाद एक दूसरेपद प्राप्त करते हुए सूबेदार, लेफ्टीनेंट और कैप्टन बनते चले गए। बाद में उन्हें मेजर बना दिया गया। ध्यानचंद को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है और दोनों से उनकी मुलाकात भी हुई । हॉकी गेंद इस कदर उनकी स्टिक से चिपकी रहती थी कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती थी कि वह कहीं न कहीं जादुई स्टिक से खेल तो नहीं रहे हैं! यहाँ तक नीदरलैंड में उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई। जापान में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी, उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई। ध्यानचंद की हॉकी की जादूगरी के जितने किस्से हैं, उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी के बाबत सुने गए हों। उनकी हॉकी की जादूगरी देखकर इस खेल के मुरीद तो वाह-वाह कह ही उठते थे, बल्कि प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी भी अपनी सुध-बुध खोकर उनकी जादूगरी देखने में मशगूल हो जाते थे! हॉकी खेलने की जादुई कलाकारी के कारण ही जर्मनी के तानाशाह रुडोल्फ हिटलर ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश कर दी थी और वहाँ की सेना में सबसे बड़ा पद देने का ऑफर क्या, लेकिन ध्यानचंद ने हमेशा ही अपने देश के लिए खेलना ही मातृभूमि की सेवा माना ।