देवयज्ञ अग्निहोत्र करने से मनुष्य पाप से मुक्त व सुखों से युक्त होते हैं
ओ३म्
मनुष्य चेतन प्राणी है। चेतन होने के कारण इसे सुख व दुख की अनुभूति होती है। सभी मनुष्य सुख चाहते हैं, दुःख प्राप्त करना कोई मनुष्य नहीं चाहता। ऐसा होने पर भी अनेक कारणों से हमें सुख व दुःख दोनों ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य को सुख प्राप्त करने के लिये प्रयत्न व पुरुषार्थ करना पड़ता है। यदि प्रयत्न बुद्धिपूर्वक होते हैं तो उनसे सुख मिलने की सम्भावना होती है। कई बार मनुष्य के द्वारा सुख की इच्छा से किये गये कर्मों के कारण भी दुःख मिल जाया करते हैं। ऐसा प्रायः सभी मनुष्यों का अनुभव होता है। मनुष्य यह चाहता है कि उसे किसी अन्य मनुष्य या प्राणी से दुःख प्राप्त न हो। ऐसा ही सभी अन्य मनुष्य एवं प्राणी भी चाहते हैं। परन्तु ऐसा देखने में आता है कि मनुष्य से कुछ ऐसे कार्य हो जाते हैं जिनसे अकारण दूसरे प्राणियों को दुःख मिलता है। मनुष्य के वह कर्म जो चाहे अनचाहें दूसरों के दुःखों का कारण बनते हैं, उससे कर्ता को पाप लगता है। विधान है कि मनुष्य को ज्ञानपूर्वक कर्म करने चाहिये और प्रयत्न करना चाहिये कि किसी प्राणी को अकारण उनसे दुःख न हो। अतः मनुष्य को प्रत्येक कर्म करते हुए इस प्रेरणा को ध्यान में रखना चाहिये। मनुष्य के कुछ ऐसे भी कर्म होते हैं जिनसे मनुष्य के न चाहते हुए भी अन्य प्राणियों को दुःख व कष्ट पहुंचता है। यदि हम सड़क पर चल रहे हैं तो चींटी आदि प्राणी हमारे पैरों से कुचल जाते हैं। हम भोजन पकाते हैं, इसकी अग्नि से वायु के कुछ प्राणियों को भी कष्ट हुआ करता है। हमारे रसोई, वस्त्र धोने तथा मल मूत्र आदि की दुर्गन्ध एवं अन्य अनेक कार्यों से भी वायु व जल आदि में प्रदुषण होता है जिसका परिणाम प्राणियों को दुःख पहुंचाता है। हम अपने कार्यों से अन्य प्राणियों को अनचाहें में होने वाले दुःखों व उन पापों से कैसे मुक्त हो सकते हैं, इसका एक वैदिक विधान देवयज्ञ अग्निहोत्र का प्रतिदिन प्रातः व सायं करना होता है। महाभारत युद्ध के बाद शायद सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के द्वारा हमारा ध्यान इस ओर दिलाया है। उनके यज्ञ करने के समर्थन में अनेक तर्क एवं युक्तियां प्रस्तुत की हैं। विचार करने पर उनकी बातें सत्य सिद्ध होती है। आईये, हम यहां कुछ का अवलोकन करते हैं।
ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश ग्रंथ में लिखते हैं कि देवयज्ञ वह होता है कि जो अग्निहोत्र और विद्वानों के संग से सेवा आदि के द्वारा होता है। अग्निहोत्र सायं प्रातः दो ही काल में करना होता है। दो ही रात दिन की सन्धि वेला होती हैं, अन्य नहीं। यज्ञ से पूर्व सन्ध्या करते हुए न्यून से न्यून एक घण्टा ईश्वर का ध्यान अवश्य करें। जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही सन्ध्योपासन किया करें। सन्ध्या से इतर सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व अग्निहोत्र करने का भी समय है। अग्निहोत्र के लिए एक किसी धातु वा मिट्टी की ऊपर 12 वा 16 अंगुल चैकोर, उतनी ही गहिरी और नीचे 3 वा 4 अंगुल परिमाण से वेदी इस प्रकार बनावे अर्थात् ऊपर जितनी चैड़ी हो उसकी चतुर्थांश नीचे चैड़ी रहे। उसमें चन्दन पलाश वा आम्रादि के श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े उसी वेदी के परिमाण से बड़े छोटे करके उस में रक्खे, उसके मध्य में अग्नि रखके पुनः, उस पर समिधा अर्थात् पूर्वोक्त इन्धन रख दें। इस लेख के पश्चात ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश में यज्ञीय पात्रों का सचित्र उल्लेख किया है जिसे सत्यार्थप्रकाश में देखा जा सकता है। इसके बाद ऋषि लिखते हैं कि यज्ञ करने से पूर्व उचित मात्रा में घी को अच्छे प्रकार देख लेवे, फिर मन्त्र से होम करें। अग्निहोत्र करते हुए यज्ञ में बोले जाने वाले सभी मंत्रों को बोलकर एक-एक आहुति देवें। ऋषि दयानन्द लिखते है कि ‘स्वाहा’ शब्द का अर्थ यह है कि जैसा ज्ञान आत्मा में हो वैसा ही जीभ से बोले, विपरीत नहीं। जैसे परमेश्वर ने सब प्राणियों के सुख के अर्थ इस सब जगत् के पदार्थ रचे हैं वैसे मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिये।
ऋषि ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि होम करने से क्या उपकार वा लाभ होता है? इसका उत्तर यह दिया है कि सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द जी ने यह भी बताया है कि चन्दनादि घिस के किसी को लगावें वा घृतादि खाने को देवें तो वह उपकार नहीं होता जो कि अग्निहोत्र करने से होता है। वह इस बात का भी खण्डन करते हैं कि अग्नि मे डाल के घृत आदि पदार्थों को व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं है। ऋषि दयानन्द आगे कहते हैं कि जो मनुष्य पदार्थ विद्या जानता है वह कभी मिथ्या बातों में विश्वास नहीं करता। किसी द्रव्य का अभाव कभी नहीं होता। जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित मुनष्यों की नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी होता है। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो कर फैल कर वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है। इस क्रम में ऋषि दयानन्द जी ने एक अन्य प्रश्न यह किया है कि जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इत्र आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा। इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि इन पदार्थों को रखने से इनकी सुगन्ध में वह सामथ्र्य नहीं होता है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके। क्योंकि उस में भेदक शक्ति नहीं होती है। और अग्नि ही का सामर्थ्य होता है कि उस गृहस्थ वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु को गृहस्थ वा घर में प्रवेश करा देता है। ऋषि दयानन्द अग्निहोत्र देवयज्ञ के महत्व पर प्रकाश डालते हुए यह भी बताते हैं कि यज्ञ के मन्त्रों में वह व्याख्यान होते हैं कि जिससे होम करने में लाभ विदित हो जायें और मन्त्रों की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें। यज्ञ करने से वेद पुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे।
यज्ञ करने विषयक एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात यह है कि जो गृहस्थ मनुष्य यज्ञ नहीं करता उसको यज्ञ के न करने से पाप होता है। यह बात बहुत से लोगों को समझ में नहीं आती। अतः ऋषि दयाननद जी ने सत्यार्थप्रकाश में इस बात को भी तर्क एवं युक्ति देकर समझाया है। उन्होंने प्रश्न दिया है कि क्या इस होम करने के विना पाप होता है? इसका उत्तर उन्होंने यह दिया है कि हां। क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस अग्निहोत्र न करने वाले मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध या उससे अधिक सुगन्ध वायु और जल में फैलाना चाहिये। वह आगे लिखते हैं कि घृत आदि खिलाने पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुख विशेष होता है जो उसे खाता है। जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव्य के होम करने से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है। जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खावें तो उन के शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके, इस से अच्छे पदार्थ खिलाना पिलाना भी चाहिये परन्तु उससे होम करना अधिक उचित है इसलिये होम का करना अत्यावश्यक है।
यज्ञ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी होता है कि प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक एक आहुति का कितना परिमाण होता है, इसका उत्तर देते हुए ऋषि ने बताया है कि प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे की घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून होना चाहिये। (एक माशा 0.97 ग्राम के बराबर होता है। इस प्रकार 6 माशे लगभग 6 ग्राम के बराबर होते हैं।) और जो इससे अधिक करें तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवर शिरोमणि महाशय ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावत्र्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।
अग्निहोत्र देवयज्ञ करने से वायुमण्डल में सुगन्ध का प्रसार होता है जिससे रोगों की निवृत्ति व सभी प्राणियों को सुख होता है। जो मनुष्य यज्ञ करते हैं उससे उन्हें पुण्य लाभ होता है। जो मनुष्य यज्ञ नहीं करते उनको यज्ञ न करने से उन पुण्यों का लाभ नहीं होता। मनुष्य यदि यज्ञ नहीं करते तो उनके कार्यों से जो अनचाहें पशु व प्राणियों को कष्ट आदि होते हैं, उनका निवारण व समाधान नहीं होता। यज्ञ करने से हम अनचाहे हुए पापों के दोषों का सुधार करते हैं जिससे हमें दुःखों की प्राप्ति न होकर यज्ञ से जो लाभ दूसरे प्राणियों को पहुंचाते हैं, उसके परिणामस्वरूप सुख प्राप्त होते हैं। अतः सब प्राणियों को देवयज्ञ अवश्य करना चाहिये। परमात्मा ने वेदों में यज्ञ करने की आज्ञा सभी मनुष्यों को दी है। यदि हम यज्ञ नहीं करते तो परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन करने से भी हम पापी होते हैं। यज्ञ को करने से मनुष्य को भौतिक एवं पारलौकिक जीवन में सुख लाभ होता है। यह एक ज्ञान व विज्ञान से युक्त कार्य है। इसका सेवन सभी शिक्षित व अशिक्षित मुख्यतः ज्ञानियों को अवश्य ही करना चाहिये। जो मनुष्य यज्ञ नहीं करेंगे वह पापी होने से दुःख भोगेंगे ओर जो करेंगे वह इस जीवन व पारलौकिक जीवन में भी सुखों को भोगेंगे। मुक्ति वा मोक्ष की प्राप्ति में भी यज्ञीय कर्म सहायक होते हैं। देवयज्ञ करने से हम अपने पूर्वज ऋषियों की आज्ञाओं का पालन करने वाले बनते हैं। ऋषियों ने पंच महायज्ञों का विधान किया है। इसके अन्तर्गत ईश्वरोपासना सन्ध्या एवं देवयज्ञ अग्निहोत्र सम्मिलित हैं। अतः सभी को अग्निहोत्र देवयज्ञ अवश्य ही करना चाहिये। वेदों में बताया गया है कि यज्ञ करने से मनुष्य की सभी उचित कामनायें भी पूर्ण वा सिद्ध होती है। उनकी सर्वांगीण उन्नति होती है। ईश्वर यज्ञ करने वाले मनुष्यों के सब मनोरथ सिद्ध करते हैं। अतः यज्ञ करना मनुष्य का ऐसा कर्तव्य है जिससे उसे दृश्य व अदृश्य अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। सभी यज्ञ करें इसी भावना से यह लेख लिखा है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य