हे मां भारती
हे मां भारती..
तुम्हारे पंखों को
तुम्हारे गोंद में बैठ कर
कुतर-कुतर कर
आहिस्ता-आहिस्ता छिन्न-भिन्न कर
टुकड़ों में विभक्त कर
मचा रहा तांडव
तेरे ही तन से जन्मा बालक….
तुम लाचार उस मां की तरह
जो अपने बेटे के समक्ष
सब-कुछ देखते हुए बेबसी लिए
चुपचाप बैठ जाती हैं अपलक
तुम्हारे कुछ चंचल बालक
लोभवश अपने ही भाईयों को
अलग कर चुके हैं सदियों से
दूसरों की वेदनाएं सहती हुई
सहनशीलता का भाव लिए
छुटकारा पाने के लिए
तेरे कितने लाल हुए कुर्बान
कितने हुए लहुलुहान
दफन हुए कितने
फांसी पर झूले,लिए अरमान
निजात पाई,हे मां भारती…
आज तेरी वेदना कायम
फर्क बस कल पराया था
आज अपना है
लाचार दिख रही हो मां
तेरा बेटा,
शोषित निर्वस्त्र जन मजबूर
कृषक,कर्मचारी जन मजदूर
छलीकपटी खुरापातीओ के द्वारा
जबरन दबाया जा रहा है
तेरे द्वारा बनाया गया
अलग-अलग घर स्वतंत्र
अपनों के द्वारा घर परतंत्र हो
विवेकहीन हो गये हैं
हे मां भारती….. अभी
तुम आधार विहीन
तुम कार्य विहीन
तुम सुख विहीन
तुम न्याय विहीन
तुम सुविचार विहीन
तुम परोपकार विहीन
अपने ही बच्चों के झंझट में
बेबस लाचार संकट में
उदासीन बैठ कठोर बन
गुमसुम बैठी हो उलझन में।
©️ रमेश कुमार सिंह रुद्र®️