बाल कहानी

यादों के झरोखे से- 30

डाइनिंग टेबिल पर बहार

रमेश को बचपन से ही हमेशा अपने पिताजी से शिकायत रहती थी. कारण भी कोई विशेष नहीं था. बस बात इतनी-सी थी कि, उसका नाम इंग्लिश में आर से आता था और स्कूल में उपस्थिति रजिस्टर में उसका नाम काफी नीचे आता था. बड़े होने पर भी नाराज़ होने का कोई-न-कोई बहाना वह निकाल ही लेता था. उसके पिताजी संतान के मोह में उसे हमेशा छोटा बच्चा मानकर बात आई-गई कर देते थे. उसकी शादी भी हो गई थी और उसके अंगना में भी एक नन्हे-मुन्ने की किलकारियां गूंजने लगी थीं. वह अपने सुपुत्र से, जिसका नाम उसने इंग्लिश में ए से अजेय आता था, यानी स्कूल में उपस्थिति रजिस्टर में उसका नाम काफी ऊपर होने की पूरी संभावना थी. इसी से उसने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ ली थी.

पिता बनने के बाद भी उसके मन में अपने पिताजी के लिए कभी प्यार का सागर उमड़ा ही नहीं. तब भी नहीं जब वे बीमार होकर हर काम के लिए दूसरों के मोहताज हो गए थे. रमेश भी किसी तरह उनको बर्दाश्त कर रहा था. लेकिन उसके प्यार की कमी उसका पोता पूरी कर देता था. वह उनकी हर छोटी-बड़ी बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखता था. पोता उनकी छड़ी भी था, मित्र और परिचारक भी.
उसके दादाजी रोज़ रात को उसे एक कहानी सुनाते थे. एक दिन उन्होंने एक प्यासे कौवे की कहानी सुनाई जिसमें, वह घड़े में पानी थोड़ा होने के कारण कंकड़-पत्थर डालकर पानी का स्तर ऊंचा कर लेता है और पानी पीकर प्यास बुझाता है. एक बार अध्यापिका जी ने स्कूल से उसे लाइब्रेरी की एक आधुनिक कहानियों की किताब दी जिसमें, प्यासे कौवे ने लोगों को स्ट्रॉ से कोल्ड ड्रिंक पीते देखा था और घड़े में पानी थोड़ा होने के कारण कंकड़-पत्थर डालने की जगह कहीं से स्ट्रॉ लाकर उससे पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई.

एक और कहानी दादाजी सुनाया करते थे कि एक पिता ने लाड़-प्यार से अपने पुत्र को पाला-पोसा, अपना पेट काटकर अच्छा लिखाया-पढ़ाया और सिर उठाकर जीने के काबिल बनाया. उम्र बढ़ने के कारण बीमार और लाचार होने पर सोने के बर्तनों में खाना खाने वाला बेटा, मिट्टी के बर्तनों में नौकरों-चाकरों के हाथ सर्वेंट क्वार्टर में अलग-थलग रहने वाले अपने पिताजी के लिए खाना भिजवाकर ही अपने को धन्य मानता था.

उनकी मृत्यु होने पर जब उनका सारा सामान फेंका जा रहा था, उनके पोते ने वे मिट्टी के बर्तन संभालकर रख लिए, ताकि अपने पिताजी को भी सबक सिखाने के लिए बुज़ुर्ग व अशक्त होने पर, वह इन्हीं मिट्टी के बर्तनों में उन्हें खाना खिलाए. पिताजी शर्मिन्दा तो अवश्य हुए, लेकिन दादाजी को तो सुख नहीं ही मिला. इस किताब में इसी कहानी में आगे जोड़ा गया था कि जब पिताजी नौकर से कहते थे कि “हरि पापाजी को खाना दे आओ और हमारा खाना भी लगाओ.” तो पोता कहता था, “हरि मेरा खाना भी दादाजी के साथ लगाना, मैं दादाजी के बिना डाइनिंग टेबिल पर बैठकर खाना नहीं खा सकता. आखिर, वे ही तो हमारे परिवार के मुखिया हैं.” दो-चार बार ऐसा करने पर पिताजी की समझ में बात आ गई और वे भी अपने पिताजी को आदर सहित खाना खिलाने लगे और अच्छी तरह देखभाल करने लगे. दादाजी के मुख से तो वैसे भी बेटे व पोते के आशीर्वादों की झड़ी झरती थी, पर पोते की इस पहल पर तो वे बलिहारी जाते थे.

आजकल अजेय के घर में भी कुछ इसी तरह का माहौल था. दादाजी के रहने के लिए अलग कमरा तो था लेकिन, उन्हें खाना वहीं भिजवा दिया जाता था और फल-स्वीट डिश-जूस-कोल्ड ड्रिंक आदि से उन्हें महरूम रखा जाता था, जबकि उन्हें बी.पी., शुगर आदि की कोई तकलीफ़ नहीं थी. केवल दादाजी के लिए ही इन चीज़ों पर भी महंगाई की मार जो थी! अजेय ने सोचा कि जब एक कौवा तक इतना सब कुछ सीख सकता है, तो क्या मैं दूसरी कहानी से शिक्षा लेकर दादाजी के लिए कुछ नहीं कर सकता, ताकि वे भी खुशियों का आनंद उठा सकें? उसने भी असहयोग आंदोलन का सहारा लिया.

फल-स्वीट डिश-जूस-कोल्ड ड्रिंक आदि उसने तब तक खाने को मना कर दिया, जब तक दादाजी को नहीं मिलते. पुत्र के लिए जान तक कुर्बान करने वाला पिता, ऐसा कैसे होने देता! मजबूरन उन्हें अपने पिताजी के लिए भी भोजन के बाद फल-स्वीट डिश-जूस-कोल्ड ड्रिंक आदि दे आने के आदेश देने पड़े. अजेय ने अभी तक इन चीज़ों का अनशन नहीं तोड़ा. कारण पूछने पर उसने दृढ़ता से कहा कि, “पापाजी, एक बात बताइए कि हम सब तो फल-स्वीट डिश-जूस-कोल्ड ड्रिंक आदि तो महंगाई का रोना रोए बिना खा सकते हैं, नौकरों को भी ये सब चीज़ें इसलिए मिल जाती हैं, कि वे या तो चुपके-चुपके खा लेंगे या काम ही छोड़कर भाग जाएंगे, तो क्या महंगाई का बहाना सिर्फ़ दादाजी के लिए ही बचा है, जिन्होंने अपनी सारी सुविधाओं का ख़्याल न करके आपको इतनी ऊंची पॉज़िशन पर पहुंचाया. आखिर एक दिन आपकी भी तो बुज़ुर्ग होने की अवस्था आएगी ही न! जब दादाजी मुझे सैर कराने ले जा सकते हैं, मुझे हर झूले पर झूलने में मदद कर सकते हैं, हर विषय का होमवर्क करने में मेरी सहायता कर सकते हैं, उन्हीं के कारण मेरा प्रॉजेक्ट कक्षा में सबसे टॉप पर आता है तो, वे हमारे साथ डाइनिंग टेबिल पर बैठकर खाना क्यों नहीं खाने आ सकते? पहले दादाजी यहां आकर ये सब चीज़ें खाएंगे, तभी मैं खाऊंगा.”

पापाजी की आत्मा ने अपने पिताजी के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए उन्हें कचोटा. बस फिर क्या था, उसी दिन से दादाजी भी उनके साथ डाइनिंग टेबिल पर बैठकर खाना व फल-स्वीट डिश-जूस-कोल्ड ड्रिंक आदि लेने लगे. डाइनिंग टेबिल पर तो जैसे बहार ही आ गई. अब भोजन के मीनू में चुटकुलों व नई-पुरानी कहानियों की सलोनी डिश भी जुड़कर रंग दिखाने, मन के सुमन खिलाने व सबके मन को महकाने लगी थी. सहमा-सहमा सूना-सा माहौल हंसी-खुशी व ठिठौलियों से चहकने लगा था.
-लीला तिवानी

आज के ब्लॉग की संख्या- 2789 (दो सात-आठ-नौ)


 

March 14, 2012,की इस रचना पर उपलब्ध कुछ टिप्पणियां-
झूमरीतलैया
बहुत सुंदर!!!! क्या कहानी थी कि पढ़कर भी आंखें गीली हो आईं!!उस दादा जी के लिए जिसने अपनी जवानी अपने बेटे तो बनाने में खर्च करदी??? और बेटा है कि मानता ही नहीं???धन्य है वो पोता जो जल्दी ही समझ गया>>>नहीं तो पूरा परिवार बिना बात ख़तम हो जाता?? इस बार भी आपने बाजी मार ली लीला बहिन@@@@@@@@

विजय विभोर
लीला जी, प्रणाम!बहुत ही सुंदर बाल सुलभ कहानी प्रेरणा से भरी हुई …..

अखिल कुमार
आपका लेख बहुत अच्छा और मार्मिक लगा आजकल सच में अधिकतर बेटे ऐसे है लेकिन विडंबना ये है कि  आपकी कहानी के जैसे पोते बहुत कम है

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “यादों के झरोखे से- 30

  • लीला तिवानी

    डाइनिंग टेबिल पर बैठते हुए यह रचना ”डाइनिंग टेबिल पर बहार” अक्सर याद आती है. यह घर घर की कहानी है. कोई भी पीढ़ी हो, सबके जीवन में यह समय आने वाला है.

Comments are closed.