गजल
सफर थोड़ा है अब आराम चाहता है।
अब मुसाफिर अपना धाम चाहता है।
कभी करो और भी मेहनत और भी तुम
अभी इसे क्या तू भी नाम चाहता है।
आगज शानदार गुजरा था वै सा ही वो
अपना मुकाम का अंजाम चाहता है।
कोई पुरानी शय नहीं मौजूद जिसमे
अगर नया साल है तो नई शाम चाहता है
असीरी की लग चुकी है उसे आदत
अब वो कोई नया गुलाम चाहता है