मेला रंग बिरंगा
गाँव शहर में अक्सर लगते
हमने देखा है एक मेला ।
रंग,बिरंगी उस दुनिया में,
पल भर भूले सारा झमेला।
सर्कस,जादू ,झूले लगते,
मेले से अपना पन बढ़ता ।
चहल-पहल वो ठेला-ठेली,
लेकिन रेला चलता रहता।
बन्दरिया का करतब देखा ,
खाया आलू-चाट, समोसा,
मन में आया फिर हम सबने
जी भर खाया इडली डोसा
खेल खिलौने ठेले देख के,
बच्चे कैसे इठलाते थे,
मेले में खो जाने के डर से,
मम्मी का हाथ पकड़ लेते थे।
कितनी सुखदायी थी बेला,
काश लगे फिर ऐसा मेला।
हम सब एक साथ मिलजुल कर,
खुश हो कर फिर जाएँ मेला।
— आसिया फ़ारूक़ी