ग़ज़ल
जो वतन के लिए सर कटाते रहे।
याद तादेर सब को वो आते रहे।
वो हमें हम उन्हें घर बुलाते रहे।
फूल उल्फत के यूँ हम खिलाते रहे।
इस तरह भी नज़र वो बचाते रहे।
खुद को चिलमन के पीछे छुपाते रहे।
याद करते रहे औ भुलाते रहे।
रेत पर नाम लिखकर मिटाते रहे।
हुस्न की अंजुमन हम सजाते रहे।
परचम ए इश्क़ ऊँचा उठाते रहे।
रस्म हर इक वफ़ा की निभाते रहे।
बेवफ़ा की जफ़ा को भुलाते रहे।
— हमीद कानपुरी