प्यार होता ही ऐसा है
“सच कहूँ तो इतने दिन तुमसे मिल नहीँ पायी तो थोड़ा बेचैन और परेशान होना तो बनता है न ?….
तुम तो जानते हो वाह्ट्सेप ,मेसेँजर या फेसबुक के लिये मुझे वक्त ही कहाँ मिलता है आधा दिन कॉलेज और फ़िर घर के साथ-साथ माँ की देखभाल भी करनी ह है..माँ के पास से एक पल भी अलग होने पर मन घबरा सा जाता है ,क्योंकि माँ बहुत ही कमजोर हो गई है…मुश्किल से रात मॆं ही तुमसे बात हो पाती है और मिस्टर डाक्टर उसमें भी अनेक राते तुम्हारी नाइट ड्यूटी चुरा लेती है!….अब तो बस इंतजार है तुम्हारे चंडीगढ़ से लौट आने का…बस जल्दी से आजाओ और सम्भालो अपनी जिम्मेदारी क्योंकि माँ तो लगता है मेरी नहीँ आपकी ही माँ है क्योंकि हर वक्त बस आपको ही याद करती रहती है और तारीफ तो पूछो मत…और हाँ पता है आज ठंड कुछ ज्यादा ही हो रही है तभी तो आज तुम्हारी दी ये गुलाबी शॉल ओढ़ी है मैंने क्योंकि ये शाल भी बिल्कुल तुम्हारी मीठी-मीठी बातों के जैसी है….जिन्हें सुनो तो शर्म के मारे झुक जाती हैं आँखें और न सुनु तो मन ही नहीँ लगता कहीँ!
ऐसे ही इसे ओढ़ लेती हूं तो गर्मी का अहसास दिलाती है पल भर मॆं ही और न ओढूँ तो तुमसे दूरी का अहसास कराकर चिढ़ाती रहती है…कोई दूसरी शॉल तो मन को भाने ही नहीँ देती…बिल्कुल तुम्हारी चंचल और अल्हड़ यादों की तरह…
तुम्हारी यादें भी तो इतनी रच बस गई हैं कि कुछ और याद आने ही नहीँ देती…पूरा एक साल हो गया है , जब हम मिले थे पहली बार वो भी हॉस्पिटल मॆं..
माँ बीमारी के कारण एडमिट थी…और तुम्हारी देख रेख मॆं ही माँ का इलाज चल रहा था….
पूरे पंद्रह दिन माँ हॉस्पिटल मॆं रही… तब तुम अपनी ड्यूटी के बाद अक्सर ही माँ को देखने चले आते थे…….तुम घंटों माँ से बात करते रहते….धीरे-धीरे माँ भी इतनी घुलमिल गई थी तुमसे कि एक बेटे के जैसे ही बात जो करने लगी थी , धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि तुम बात तो माँ से करते ,उनका हाल-चाल पूछते लेकिन तुम्हारी आँखें नज़र बचाकर मुझे ही देखती रहती थी , कितनी ही बार तुमसे नज़र टकराई पर मै चाहकर भी कुछ कह न पायी …हाँ ! तब मै कुछ-कुछ समझ गई थी कि ये डाक्टर साहब क्यों ड्यूटी के बाद भी माँ को देखने चले आते है…ये थकते नहीँ कि आराम करें ?या घर मॆं कोई है ही नहीँ जो कि ड्यूटी के बाद इनका इंतजार करता हो ?
अरे i कितने काम होते हैं जीवन मॆं….इनके पास क्या सिर्फ माँ ही एक मरीज है जो हॉस्पिटल मॆं इतने मरीज होने बाद भी ये माँ का ही इतना ध्यान क्यों ? कोई बेटा भी इतना वक्त नहीँ दे पाता हो शायद ..खैर !……उस पल मुझे गुस्सा आता था तुम्हारे ऐसे यूँ बार-बार मुझे ही देखते रहने से !
माँ के घर चले जाने के बाद भी मै हर हफ्ते माँ को चेकअप के लिये हॉस्पिटल लेकर आती थी…उस दिन मेरा पूरा बदन मारे बुखार के तप रहा था और माँ के साथ जब मै हॉस्पिटल आयी तो मेरी हालत देखकर तुम खुद अपनी गाड़ी से मुझे और माँ को घर छोड़ने आये…
माँ तुम्हें ढेरों आशीर्वाद देते वक्त अचानक ही कह बैठी…..”काश ! भगवान एक बेटा भी दे देता….जो मेरी दिव्या को यूँ अकेले ही परेशान न होने देता…पिता के जाने के बाद घर की सारी जिम्मेदारी मेरी बच्ची को अकेले ही उठानी पड़ रही है….” ।
“आँटी जी ….मै भी तो आपके बेटे के जैसा ही हूँ ,आप मुझे ही अपना बेटा मान लीजिये और हाँ आपकी बेटी बेटों से भी ज्यादा हिम्मत वाली है….इन्हौने जिस तरह आपकी देखभाल की है रात-रात भर जागने के बाद भी चेहरे पर थकान तक नहीँ महसूस होने दी और शायद ही कोई बेटा इतनी देखभाल कर पाता !”
“हाँ डाक्टर साहब बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप….मेरी दिव्या है ही बेटों से बढ़कर….मै तो बस कभी-कभी इसे लेकर परेशान हो जाती हूं “!
कहकर माँ की आँखों मॆं आँसू भर आये और माँ को ऐसे परेशान होते हुये देखकर तुमने बड़े ही अपनेपन से माँ से कहा था !
“अब आप मुझे डाक्टर साहब कहकर पराया न बनाइये ?आप मुझे बेटा ही कहेंगी तो मुझे भी लगेगा कि ईश्वर ने एक माँ मुझसे छीन ली थी तो आपके रुप मॆं फ़िर से मुझे माँ दे दी है,कभी भी कोई भी परेशानी हो तो बेझिझक आप मुझे याद कर सकती हैं…..मै अब चलता हूं आँटी जी…….और हाँ दिव्या जी आप भी मेडिसन लेकर आराम कीजिये कोई बात हो तो मुझे कॉल कर दीजियेगा ….॥”
सच ! उस घटना के सालों बाद आज किसी का इतना अपनापन देखा ।
पर ! डरती थी कि कहीँ मेरे जीवन का वो कडुवा सच जानने के बाद तुम भी जिस दिव्या को इतना अपने से लग रहे हो और तुम्हारी आँखों मॆं जो प्यार और अपनापन मैं देख और महसूस कर रही हूँ…. कहीँ सच जानने के बाद इससे नफरत न करने लगो…!
धीरे-धीरे वक्त बीतता चला जा रहा था उस दिन तुम सवेरे-सवेरे आये और माँ के पास बैठकर माँ से बातें कर रहे थे…मै तुम्हारे लिये कॉफी लेकर आ ही रही थी कि तभी तुम्हारी और माँ की बाते सुनकर कुछ देर वहीँ दरवाजे के पीछे रुक गई थी….और तुम्हारी और माँ की बात सुनने लगी ।
तुमने बिना कोई भूमिका बाँधे सीधे-सीधे माँ से कहा था कि
“माँ ! मैं दिव्या से शादी करना चाहता हूँ….क्या आप मुझे अपना बेटा बनायेगी ?
देखिये मेरे पापा बीमार रहते है और अब तो वो बिस्तर पर ही हैं…और माँ का साया तो बचपन मॆं ही सिर से उठ गया था….मेरे लिये रिश्ते पर रिश्ते आ रहे हैं लेकिन अभी तक कोई भी लड़की मुझे मेरी जीवन-संगिनी के रुप मॆं पसंद ही नहीँ आयी, लेकिन जब से दिव्या को देखा है, जाना है, तब से मेरा दिल बार-बार मुझे यही कह रहा है कि दिव्या ही वो लड़की है जो मेरी जीवन-संगिनी बन सकती है…दिव्या एक प्रोफेसर होने के साथ ही एक अच्छी बेटी और अच्छी इंसान भी है….इन्ही सभी गुणों के कारण पता ही नहीँ लग पाया कि कब मैं दिव्या को मन ही मन चाहने लगा हूँ….॥”
तुम एक साथ इतना कुछ बोलते रहे और माँ की आँखों से आँसुओं की नदी सी बहने लगी….तभी माँ ने अपने आँसू अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछते हुये तुम्हारी तरफ़ देखा और एक लम्बी साँस लेने के बाद माँ ने तुमसे कहना शुरू किया…
“बेटा ! मै तुम्हारी बात ,तुम्हारी भावनाएँ समझ रही हूँ…..ये तो मेरी दिव्या का सौभाग्य होगा और भला तुम्हारे जैसा जीवन साथी जिसे मिलेगा वो तो दुनियाँ की सबसे भाग्यशाली लड़की होगी बेटा….लेकिन….लेकिन….”
कहकर माँ के शब्द मानों गले मॆं ही अटककर रह गये….और मैं…मेरे तो मानों शरीर मॆं जान ही न रही हो क्योंकि जैसा माँ सोच रही थी ,मैं भी वैसे ही मन ही मन डर रही थी सोचकर…तुम्हारे चेहरे पर अनेक भाव आ-जा रहे थे और तुमने थोड़ा घबराते हुये माँ से कहा “क्या मैं दिव्या के लायक नहीँ हूँ ?”!
“न…न..नहीँ…नहीँ बेटा तुममे कोई कमी नहीँ…..” माँ ने अपने आँसुओं कॊ पोंछते हुये कहा ।
“तो फ़िर ये लेकिन…..? बताओ न माँ आखिर बात क्या है ?” तुमने फ़िर माँ से पूछा !
“बेटा मेरी दिव्या के साथ बचपन मॆं एक दरिंदे ने …” अपनी बात पूरी भी नहीँ कर पायी माँ और फूट-फुटकर रोने लगी….पता नहीँ इतने सालों से कैसे माँ अपने आँसू रोके हुये थी और ये जख्म वक्त के साथ अभी तक भी नहीँ भर पाया था….माँ को बस यही तो चिंता खाये जा रही थी कि पता नहीँ इस दाग के साथ कोई उसकी बेटी को अपनायेंगा भी ?किंतु माँ हमेशा ही मुझे समझाती रही कि गुनाहगार तो वो है जिस दरिंदे ने एक ग्यारह साल की बच्ची के साथ इतनी घिनौनी हरकत की…..माँ मुझे तो इस कडुवे सच से बाहर निकलने की कोशिश करती रही लेकिन खुद भीतर ही भीतर टूट चुकी थी और बस यही डर उन्हें बीमारी की गिरफ्त से बाहर नहीँ आने देता था…..माँ ने दुनियाँ के तानों की परवाह न करके मुझे पढाया लिखाया और इस काबिल बनाया कि आज मैं सिर उठाकर जी रही हूँ….लेकिन मेरी माँ भी तो माँ ही है न ?
और दुनियाँ की सब मांओं की तरह मेरी माँ ने भी अपनी बेटी को दुल्हन के रुप मॆं देखने का सपना ज़रूर देखा है…माँ चाहती तो तुमसे ये सच छुपा सकती थी,f लेकिन माँ का मानना है कि झूठ की बुनियाद पर टिके रिश्तों की उम्र बहुत लम्बी नहीँ होती….माँ हमेशा मुझसे यही कहती कि
” दिव्या जीवन की इस कठिन परीक्षा से मत डरना कभी….बेटा “।
और..और….. आज माँ ने सब बोझ तुम्हारे सामने रख ही दिया….॥
मैं सोच ही रही थी कि तभी तुमने अपने हाथों से माँ के आँसू पोंछते हुये कहा….”इस सबमें दिव्या का दोष कहाँ है माँ ?और चाँद को देखिये क्या उसके दाग के होने से उसकी चाँदनी कम हुई है…या उसकी गरिमा मॆं कोई कमी आयी है ?…नहीँ…..ना….तो माँ…..अब इस कडुवे सच को आज ही हमेशा के लिये भूल जाइये क्योंकि मैंने दिव्या से प्यार किया है और ये प्यार कभी कम नहीँ होगा….बल्कि अब तो ये प्यार और भी बढ़ गया….क्योंकि सच की बुनियाद पर जो बनने जा रहा है ये रिश्ता…..॥
माँ ने मुझे बुलाया तो मेरी आँखों के आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीँ ले रहे थे , मैं तो निशब्द हो गई थी।
बस ! तुम्हे देखकर सोच रही थी कि इंसान के रुप मॆं देवता भी हैं इस धरती पर ,क्योंकि मेरे लिये तो तुम मेरे देवता ही हो न डा.करण? वरना…..मैंने तो शादी शब्द को अपने मन से ही निकाल दिया थ…..पर माँ ! वो हमेशा समझाती रहती “कि हर साँझ के बाद सबेरा ज़रूर आता है और देखना कोई राजकुमार आयेगा मेरी जो मेरी दिव्या बहुत प्यार करेगा और उसे अपनी दुल्हन बनाकर ले जायेगा को ” ।
…तभी तुमने उठकर मेरा हाथ पकड़कते हुये कहा….”जानती हो ये प्यार होता ही ऐसा है”…सोच ही रही थी कि तभी मोबाइल बज उठा और मुझे लगा जैसे किसी ने नींद से जगा दिया हो ॥
— सविता वर्मा “ग़ज़ल”