हर्ष, उमंग एवं सद्भावना का त्यौहार : लोहड़ी
13 जनवरी लोहड़ी पर विशेष
छोटी-छोटी खुशियों का संग्रह है ज़िंदगी। खुशियां का पूरा गगन किसी के भी पास नहीं है कि मनुष्य जब चाहे खुशी का सितारा तोड़ कर ज़िंदगी को श्रृंगार ले। मनुष्य ने मौसम, दिन, वातावरण, रीति रिवाज़, रिश्ते-नाते मोहब्बत, प्रेम, लगाव तथा परम्पराओं इत्यादि को मद्देनज़र रखते हुए हर्ष, चाव इत्यादि को ढूंढने के लिए मेलों, त्योहारों को अस्तित्व में लाया गया। अगर मनुष्य की ज़िंदगी से मेले-त्यौहार तथा महत्वपूर्ण दिनों को मनफी कर दिया जाए तो समस्त ज़िंदगी नीरस सी, फीकी एवं बे-स्वाद सी होकर रह जाए। मनुष्य की ज़िंदगी में खूबसूरतियां, सुन्दरता, सौन्दर्य, जीने की उमंग, एक ललक तथा एक इच्छा पैदा करते हैं मेले एवं त्यौहार।
लोहड़ी शब्द ‘लोही’ से बना जिसका अभिप्राय है वर्षा होना, फसलों का फूटना। एक लोकोक्ति है अगर लोहड़ी के समय वर्षा न हो तो कृषि का नुक्सान होता है। परम्परा के गुलशन से ही जन्म लेता है लोहड़ी का त्यौहार। यह त्यौहार मौसम के परिवर्तन, फसलों का बढ़ना तथा कई ऐतिहासिक तथा मिथ्यहासिक दन्त कथायों से जुड़ा हुआ है। मुख तौर पर भारत का प्रसिद्ध राज्य पंजाब कृषि प्रधान राज्य है। इसी वजह से किसानों, जिमींदारों एवं मज़दूरों की मेहनत का पर्यायवाची है लोहड़ी का त्यौहार। यह त्यौहार हर्ष तथा सद्भावना को सर्दी की अल्हड़ ऋतु में कीर्तिमान करता है। लोहड़ी समस्त मज़हबों, धर्मों के लिए एकता का प्रतीक तथा सांस्कृति का एक भव्य उपहार है।
लोहड़ी माघ महीने की सक्रांति से पहली रात को मनाई जाती है। किसान सर्द ऋतु की फसलें बो कर आराम फरमाता है। जिस घर में लड़का पैदा हुआ हो उसकी शगुन एवं हर्ष से लोहड़ी पाई जाती है। बैंड-बाजे बजाए जाते हैं। बाज़ीगरनें एवं भंड रिश्ते-नातों के गीत सुना कर हास्य-व्यंग्य के विनोद-गायन सुना कर अपने बनती लोहड़ी ;बधाईद्ध बटौर कर ले जाते हैं। इस दिन प्रत्येक घर में मुंगफली, रेवड़ियां, चिरवड़े, गच्चक, भुग्गा, तिलचैची, मक्की के भुने दाने, गुड़, फल इत्यादि लोहड़ी बांटने के लिए रखे जाते हैं। गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है। दहीं के साथ इसका स्वाद अपनी ही होता है। जिस नवजन्मे बच्चे के लिए लोहड़ी पाई जाती है उसके रिश्तेदार उसके लिए सुन्दर वस्त्रा, खिलौने तथा जेवरात इत्यादि बनवा कर लाते हैं।
आजकल तो लड़कियों की लोहड़ी भी खुशी एवं उमंग से पाई जाती है। विकसित परिवारों में लड़ी की लोहड़ी का चाव लड़के से कम नहीं करते। रिश्तेदार लड़ी को आभूषण एवं सुन्दर वस्त्रा देते हैं। खास कर के लोहड़ी वाली लड़की को पाज़ेबें देना शुभ शगुन समझते हैं। इस दिन घरों के आंगनों, संस्थाओं, जुंडलियों, मुहल्लों, बाज़ारों इत्यादि में खड़ी लकड़ियों के ढ़ेर बना कर या उपलों का ढ़ेर बना कर उसकी अग्नि से सेंक का लुत्फ लिया जाता है। चारों ओर बिखरी सर्दी तथा रूईं की भान्ति फैली धुंध में अग्नि के सेंक का अपना ही आनंद होता है। इस अग्नि में तिल इत्यादि फैंकते हैं। घरों में समस्त परिवार बैठ कर हर्ष की अभिव्यक्ति के लिए गीत गायन करते हैं। देर रात तक ढ़ोलक की आवाज़द्व ढ़ोल के फड़कते ताल, गिदों-भंगड़ों की धमक तथा गीतों की आवाज़ सुनाई देती रहती है। रिश्तों की सुरभि, मोह-ममता तथा प्यार का नज़ारा चारों ओर देखने को मिलता है। एक सम्पूर्ण खुशी का आलम।
लोहड़ी के त्यौहार के साथ जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं। एक प्रसिद्ध डाकू दूल्ला भट्टðी ने एक निर्धन ब्राह्मण की दो बेटियों सुन्दरी एवं मुन्दरी को ज़ालिमों से छुड़ा कर उनकी शादियां कीं तथा उनकी झोली में शक्कर डाली। उन निर्धन बेटियों की शादियां करके पिता के फर्ज़ निभाए। इस सम्बन्ध में एक लोक गीत अब भी प्रचलित है जैसेः- सुन्दर मुन्दरएि-हो, तेरा कौन बेचारा-हो, दुल्ला भट्टी वाला-हो, दुल्ले ने धी बेआही-हो, सेर शक्कर पाई-हो, कुढ़ी दे बोझे पाई-हो, कुढ़ी का लाल पटाका-हो, कुढ़ी दा शालू पाटा-हो, शालू कौन समेटे-हो, चाचा गाली देसे-हो, चाचे चूरी कुट्टी-हो, सेर शक्कर पाई-हो, ज़िमींदारां लुट्टी-हो, ज़िमींदार सदाओ-हो, गिन-गिन पोले लाओ-हो, इक पोला घस गया, ज़िमींदार बहुटी लै के नस्स गया, हो-हो-हो-हो-हो-हो-हो-हो।
लोहड़ी वाले दिन बुज़ुर्ग लोक सुन्दरी-मुन्दरी की कथा भी सुनाते हैं किस तरह दुल्ला भट्टी डाकू ने निर्धन लड़कियों का विवाह करके अपना धर्म निभाया। लोहड़ी के कई परम्परावादी गीत प्रचलित हैं जैसेः- लोहड़ी बई लोहड़ी, दिओ गुड़ दी रोड़ी, कलमदान विच घिओ, जीवे मुंडे दा पिओ, कलमदान विच कांना, जीवे मुंडे का नाना, कलमदान विच कांनी, जीवे मुंडे दी नानी। लड़के-लड़कियां भी इस दिन लोहड़ी मांगते हैं। ग्रुप बना कर लोहड़ी मांगने का अपना ही एक मज़ा होता है। बेशक लोहड़ी के गीत अलोप होते जा रहे हैं परंतु वृद्ध-जनों को आज भी यह गीत जुबानी याद हैं जैसेः- कोठी हेठ चाकू, गुड़ दऊ मुंडे दा बापू। कोठी उत्ते कां, गुड़ दऊ मुंडे दी मां। विवाहित जोड़ों ;दम्पतिद्ध की भी लोहड़ी पाई जाती है। इस पर एक लोक गीत हैः- टांडा नी लकड़ियो टांडा सी, इस टांडे नाल कलीरा सी, जुग जीवे नी बीबी तेरा वीरा सी, इस वीरे दी वेल वदाई सी, घर तेरे बीढ़े वाली आई सी, चूड़ा बीढ़ा बज्जे नी, शरीकनियां नूं सद्दे नी, शरीकनियां मारे बोल, तेरा निक्का जीवे, तेरा बîóा जीवे, बîóा बड़ेरा जीवे, गुड़ दी रोड़ी देवे, भाईयां दी जोड़ी जीवे।
लोहड़ी वाले घर से अगर जल्दी लोहड़ी न मिले तो लड़कियां यह गीत कहती हैंः- साडे पैरं हेठ रोढ़, सानूं छेती-छेती तोर, साडे पैरां हेठ दहीं, असीं मिलना वी नईं, साडे पैरां हेठ परात, सानूं उत्तें पै गई रात। लड़का पैदा होने पर लड़कियां व्यंग्य-विनोद में उसके परिवार को इस गीत से सम्बोधन करती हैंः- गीगा लकड़ी दा शाबा, वे लड़का तेरा बाबा, गीगा तत्ता-तत्ता घिओ, वे लड़ाका तेरा पिओ, गीगा गोरी-गोरी गां, वे लड़ाकी तेरी मां। इस तरह कुछ और गीत जैसेः- कुपिए नीं कुपिए, असमान ते लुट्टिðए, असमान पुराना, छिक् बन्ना ताना, लंगरी च दाल, मार मत्थे नाल, मत्था तेरा वîóा, लेआ लकड़ियां दा गठ्ठा। लोहड़ी के दिन लड़के स्वांग बन कर नाचते गाते भी लोहड़ी मांगते हैं।
लोहड़ी के दूसरे दिन माघी का पवित्रा त्यौहार मनाया जाता है। माघ माह को शुभ समझा जाता है। इस माह में विवाह शुभ माने जाते हैं। इसी माह में पुन्य दान करना, ख़ास करके लड़कियों की शादी करना शुभ माना जाता है। इस माह में नवयुवकों को खूब खुराक खानी चाहिए। ठिठुरती सर्दी में रजाई का आनन्द, गन्ने का रस, मूली, गाजर इत्यादि खाने का मज़ा भी इसी महीने आता है। चावल की खिचड़ी, सरसों का साग, मक्की की रोटी और मख्खन खाने का ज़ायका भी कमाल का होता है।
माघी का मेला अनेक शहरों में मनाया जाता है। ख़ास करके मुक्तसर ;पंजाबद्ध में। सिक्खों के पांचवें गुरू श्री अर्जुन देव जी ने माघ माह की ‘बारह माह बाणी’ में प्रशंसा की हैः- माघ मंजन संग साधुआं धूढी कर इस्नान इत्यादि। श्री कृष्ण भगवान ने गीता के आठवें अध्याय में भी माघ माह का अति सुन्दर वर्णन किया हैः- अग्नि ज्र्योतिरह शुक्ल, वण्मासा उतरायणन। माघ माह से लेकर छः माह का समय ‘उत्तरायणयम’ कहलाता है, जिसमें ब्रह्म को जानने वाले लोग प्राणों का त्याग कर मुक्त हो जाते हैं। प्रयाग तीर्थ में महात्मा लोग प्रकल्प करते हैं। लोहड़ी का त्यौहार भारत में ही नहीं विदेशों में भी धूम-धाम से मनाया जाता है।
— बलविन्दर ‘बालम’