ग़ज़ल
जिन्दगी भर ये उठाता रहा जिस्मों जां।
आदमी मुझको तो मज़दूर नज़र आता है।
आज कल लख्ते जिगर को ये बीमारी क्यों।
पास रह कर भी दिल से दूर नज़र आता है|
लाख करता हो कितनी भी गलतियां बेटा
हर माँ को बेटा अपना कोहिनूर नजर आता है|
नौजवां आज कल हर वक्त कहाँ खोया है ?
अपनी दुनिया से बाहोत दूर नज़र आता है|
हर तरफ़ उसका मुझे नूर नज़र आता है
कितना दिल प्यार में मजबूर नज़र आता है|
मेरी कमज़ोरी का उसको भी पता है शायद
मेरा दुश्मन बडा मशहूर नज़र आता है|
मैं पकड़ना भी जो चाहूँ सुख के लम्हों को|
हर गुज़रता हुआ पल दूर नज़र आता है
होठ सीके तूने ज़ख्म खुले छोड़े क्यों।
थोड़ा सा ज़ख्म भी नासूर नज़र आता है।
जज्बात के तूफ़ान में जज्बात ही साथी है..
बेजान पत्थरों से कभी बात नहीं होती…….
— रेखा मोहन