गीत
बस्ती-बस्ती में मैं घूमा, सुबह छपा अखबार में।
कहीं प्रसंसा, तो मिली कहीं पर गालियां,
कहीं चना तो मिली कहीं पर रोटियां,
जैसे-तैसे राह गुजारी नही गया दरबार में
भारत माता की पूजा ही, है मेरे आधार में
बस्ती-बस्ती में मैं घूमा, सुबह छपा अखबार में।।१।।
नींद बेंचकर स्वप्न खरीदा, स्वप्न बेंचकर राहें
सौदा कोई काम न आया, भरते अपनी बाहें
बिना थके ही रोज उठा अपने ही मसान में,
अर्थी कोई नही उठाया, मैं ठहरा श्मशान में
बस्ती-बस्ती में मैं घूमा, सुबह छपा अखबार में।।२।।
कोई मिला तो प्रेम दिया, कोई ने तो घाव दिया
जिसके जीवन मे जो था, उसने वैसा भाव दिया
डगर- डगर में मैं गाया, जीवन के सोपान में
अपना कोई नही मिला, छला गया बाजार में
बस्ती-बस्ती में मैं घूमा, सुबह छपा अखबार में।।३।।
जिनको मैं अपना समझा, वो तो वीराने निकले
जिनको केवल कभी दिखा वो ही अपने निकले
प्रत्यक्ष की तो बाते छोड़ो, नही मिले दूरभाष में
कैसे-कैसे लोग बसे हैं, इस रँगीले संसार में
बस्ती-बस्ती में मैं घूमा, सुबह छपा अखबार में।।४।।