धुंध
सर्दियों की भोर में
तुम्हें उठाने से पहले
ठण्ड का खुद
जायका लेकर देखती हूँ
गर्म चाय के पतीले से
उठती भाप से
गहराती धूंध तक
तुम्हारे बारे में ही
हर क्षण सोचती हूँ
बाहर ठण्ड में
बस्ता लेकर निकले
नन्हें नन्हें पावों की आहट को
दौड़कर निहारती हूँ
फिर कुछ सोचकर
तुम्हें चलो उठो कहकर
बार बार जगाती हूँ
वर्षों से यही क्रम
तुम्हारी स्कूल जाने की फ्रिक
बढ़ती ठण्ड
हिस्सा है मेरे जीवन के ।
उठ ,उठ के शब्दों से
शायद अब तुम भी ऊब गये हो
पर मैं गुनगुनाती दोपहर में
तुम्हारे आने का इन्तजार करती
हमेशा “मम्मी मैं आ गया” के
लोभ में फिर नयी सुबह
तुम्हें उठाती हूँ
तुम्हारे अच्छे भविष्य की आस में
ये धूंध भी गुनगुनी सी लगती है ।
अल्पना हर्ष