सावित्रीबाई फुले : महिलाओ की शिक्षा एवं प्रगति की पथ प्रदर्शक
भारतवर्ष में 19वीं शताब्दी का उत्तरार्ध शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आंदोलनों एवं समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, बाल विवाह, सती प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या एवं अशिक्षा के विरुद्ध लोक जागरण एवं लड़ाई का स्वर्णिम काल था। आज देश में शिक्षा एवं विकास के समान अवसर उपलब्ध हैं पर डेढ़ सौ साल पहले यह कल्पना करना भी बेमानी था कि कोई बालिका शिक्षा हेतु विद्यालय के द्वार पर दस्तक दे। महिलाओं के लिए घर के कामकाज एवं चूल्हा-चौका में कुशल होना ही पर्याप्त था। बालिकाओं का पुस्तक का स्पर्श कर लेना भी मानो अपराध था। एक घटना से इसे समझा जा सकता है। एक परिवार में 8 वर्ष की एक लड़की घर में रखी हुई एक अंग्रेजी की पुस्तक के पन्ने कौतूहलवश पलटने लगी और उसके पिता ने देख लिया तो उस नन्ही बालिका को प्रोत्साहन देने की बजाय डांटा-दुत्कारा गया तथा पुस्तक उसके हाथों से छीनकर घर के बाहर फेंक दी गई। जानना चाहेंगे कि यह बालिका कौन थी? यह थी सावित्री बाई। हां, वहीं सावित्रीबाई फुले जिसने आगे चलकर महिलाओं के लिए शिक्षा के बंद रास्ते खोले।
3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले की खंडाला तहसील के नायगांव में एक पिछड़े वर्ग के परिवार में सावित्रीबाई का जन्म हुआ था। सावित्री को किसी स्कूल भेजने का प्रश्न ही नहीं था। पिता खंदोजी नावसे पाटिल और माता लक्ष्मीबाई ने तत्कालीन परिस्थितियों एवं सामाजिक रीति-रिवाज के कारण 9 वर्ष की छोटी अवस्था में ही सावित्री का विवाह पुणे के 12 वर्षीय ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के साथ 1840 में कर दिया। ज्योतिराव पांचवीं तक ही शिक्षा प्राप्त कर सके थे। विवाह के बाद ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को पढ़ाना आरम्भ किया। फलतः ज्योतिबा का विरोध शुरू हो गया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और चोरी छिपे पढ़ाना-लिखाना जारी रखा। सावित्रीबाई और ज्योतिबा की एक रिश्तेदार सगुणाबाई खेत पर ज्योतिबा को दोपहर में खाना देने जाती थीं। ज्योतिबा ने वहीं खेत की मेंड़ पर आम के पेड़ के नीचे आम की पतली टहनी की कलम बनाकर दोनों को अक्षर ज्ञान कराया। किसे मालूम था कि उस खेत की जमीन में धूल पर उकेरे गये पहले अक्षर एक तेजस्विनी अग्नि को जन्म देने वाले थे जिसे समाज में व्याप्त भेदभाव, बंदिशें और गैर बराबरी की कलुष बेड़ियों को जलाकर महिलाओं एवं वंचित समाज के लिए विकास का एक राजपथ तैयार करना था। जिस पथ पर चलते हुए वे सिर उठाकर आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और आत्मगौरव के साथ जी सकें। इस तरह खेत और घर पर सावित्री बहुत संघर्ष के साथ अक्षर ज्ञान कर सकीं। फिर बाद में एक ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी मिसेज मिसेल ने बालिकाओं के लिए 1840 में पुणे में छबीलदास की हवेली में एक नार्मल स्कूल प्रारम्भ किया तो सावित्री वहीं पढ़ने लगीं। वहीं पढ़ते समय सावित्री ने गुलामी प्रथा के विरुद्ध काम करने वाले थामस क्लार्कसन की जीवनी पढ़ी जिसमें अमेरिका के अफ्रीकी गुलामों के जीवन और संघर्ष की दर्दनाक दास्तान छपी थी। सावित्री समझ गई कि शिक्षा ही बदलाव का मजबूत औजार है क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति न तो अपने अधिकार जान सकता और न ही उनकी प्राप्ति के लिए लड़ाई लड़ सकता।
बालिकाओं को शिक्षा से जोड़ने के लिए 1 जनवरी 1848 में ज्योतिबा के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की 9 बालिकाओं को लेकर भिड़ेवाड़ी, पुणे में कन्या विद्यालय स्थापित किया, जहां सगुणबाई ने भी शिक्षिका के रूप में काम किया। इस विद्यालय में बालिकाओं ने गणित, व्याकरण, भूगोल, भारत सहित यूरोप एवं एशिया के नक्शों की जानकारा, मराठों का इतिहास तथा नीति एवं बाल बोध विषयों को पढ़कर देश के शैक्षिक फलक में अपनी जीवन्त उपस्थिति दर्ज करायी। लेकिन एक दलित महिला का यह शैक्षिक प्रयास समाज के स्वयंभू ठेकेदारों को फूटी आंखों नहीं सुहा रहा था। फलतः स्कूल पर हमला हुआ तो बालिकाओं की सुरक्षा को ध्यान रखते हुए विद्यालय बंद करना पड़ा। विरोधियों को लगा होगा कि उन्हें विजय मिल गई लेकिन यह उनकी भूल थी। सावित्रीबाई ने कुछ ही समय बाद, 15 मई 1848 को दलित बस्ती में दलित बालक-बालिकाओं के लिए एक अन्य स्कूल खोला। एक वर्ष के अंदर 5 विद्यालय स्थापित किये। इतना ही नहीं वह अल्पसंख्यक समुदाय की निम्न शैक्षिक स्थिति को लेकर भी चिंतित थीं। तो उन्हें भी शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अपनी स्कूल की छात्रा फातिमा शेख को अपने एक स्कूल में शिक्षिका बनाकर प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्रदान किया। इस प्रकार सावित्रीबाई ने ज्योतिबा के साथ मिलकर 1 जनवरी 1848 से 15 मार्च 1852 की अवधि में पुणे और उसके आसपास 18 विद्यालय स्थापित किए। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1852 में बेस्ट टीचर के सम्मान से विभूषित किया। जब सावित्रीबाई अपने विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने जातीं तो विरोधी उनके ऊपर कूड़ा-कचरा, गंदगी, विष्ठा फेंक देते थे। वह अपने साथ एक झोले में एक अतिरिक्त साड़ी रखतीं और विद्यालय पहुंचने पर विरोधियों द्वारा फेंकी गई गंदगी को साफ कर दूसरी साड़ी पहन लेतीं। वह खुश थीं कि स्त्री शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए कुछ कर पा रही हैं। उस समय विधवा महिलाओं के बाल काट दिये जाते थे। सावित्रीबाई ने बाल काटने वाले नाईयों से बातचीत की और उनको साथ लेकर विधवा महिलाओं के सिर मूंड़ने के खिलाफ आंदोलन चलाया। 1852 में महिलाओं को आर्थिक स्वावलंबन देने के लिए ‘महिला सेवा मंडल’ बनाया जिसमें महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने हेतु उनके कौशल विकास के प्रशिक्षण प्रारम्भ हुए जिससे महिलाएं आत्मनिर्भर बन सकीं। वर्ष 1893 में पति की मृत्यु के बाद सत्य शोधक समाज की अध्यक्ष बनीं।
भारत सरकार ने 10 मार्च 1998 को सावित्रीबाई पर 2 रुपये का डाक टिकट जारी कर उनके शैक्षिक एवं सामाजिक अवदान के महत्व को रेखांकित करते हुए सार्थक श्रद्धांजलि प्रदान की। ‘गूगल’ ने 2017 में उनकी 186वीं जयंती पर ‘डूडल’ के जरिए उन्हें स्मरण किया जिसमें सावित्रीबाई को महिलाओं को अपने आंचल में समेटते दिखाया गया है। महाराष्ट्र सरकार ने 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय कर उनकी स्मृति को चिर स्थायी कर दिया। प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए रोग ग्रस्त होने के कारण 10 मार्च 1897 को पुणे में निधन हो गया। सावित्रीबाई आज हमारे बीच नहीं पर उनके किए गये कार्य एवं विचार हमें रास्ता दिखाते रहेंगे।
— प्रमोद दीक्षित मलय