छोटकी फटफटिया
अब तो ‘डरीमा’ भी नहीं होते है…. क्या पाठक सर ‘कर्ण’ बनते थे, रमाकांत सर तो ‘कृष्ण’ होते थे, अर्जुन के किरदार में ‘देवेन्द्र’ बाबू होते थे ! कुंती होते थे ‘ब्रह्मा दादा’ !
द्रोपदी होते थे ‘गुरुदेव’ ! गुलाबबाग की नर्तकियाँ आती थी! ….यानी रियल औरत यही होती थीं इन डरीमा में, किन्तु कुंती या द्रोपदी ‘पुरुष’ ही होते थे!
महाराणा प्रताप की भूमिका में मुकुंद बाबू और झाला सरदार की भूमिका में यदुवीर दादा को कौन भूल सकता है !
तब सचमुच में ‘मेला’ होता था, अब तो वह सिर्फ ठेलमठेला है! तब मुझे ‘लट्टू’ बहुत पसंद होता था, यही कारण अबतक मुझपर कोई लड़कियाँ ‘लट्टू’ नहीं हुई हैं!
‘गेंद’ भी पसंद था, लेकिन खिलाड़ी नहीं बन सका! छोटी फटफटिया पसंद था, लेकिन इस पटाखा को ईंट से पीटकर भी फोड़ डालते थे!
अफसोस है, जो चीज वहाँ नहीं मिलती थी, वही चीज लेकर मैं जीवनभर के लिए बैठ गया हूँ यानी कलमकार हूँ, भाई !