सकारात्मक सोच
- जीवन रंज और खुशियों का मिला जुला रूप है. कभी खुशियां है तो कभी गम. जीवन में सावन भी है और पतझड़ भी. यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह जीवन को किस रूप में लेता है.सकारात्मक सोच के साथ जीता है या नकारात्मक सोच के साथ. सकारात्मक नजरिया रखने से जीवन कुछ आसान हो जाता है.
एक फिल्म आनंद अाई थी. जिसका नायक आनंद था जिसे राजेश खन्ना ने अभिनीत किया था. आनंद को आंतों का कैंसर है और उसे मालूम है कि अधिक से अधिक वह छह महीने जिंदा रहेगा इसके बावजूद वह जिंदगी से निराश नहीं होता बल्कि मजाक और हंसी खुशी से अपना जीवन जीता है. जब डॉक्टर भास्कर, डॉक्टर प्रकाश के दफ़्तर में बैठे हुये होते हैं तो आनन्द वहाँ आ धमकता है और अपनी मज़ाक की आदत शुरु कर देता है जिससे भास्कर बैनर्जी को ग़ुस्सा आ जाता है और वह आनन्द से पूछता है कि उसे मालूम भी है कि उसे क्या बीमारी है, तो आनन्द उसे बताता है कि उसे कैंसर है और वह ज़्यादा से ज़्यादा वह छः महीने ही ज़िन्दा रहेगा. यह सुनकर भास्कर आनन्द का क़ायल हो जाता है कि यह मालूम होते हुये भी कि वह कुछ ही दिनों का मेहमान है, आनन्द इतना ज़िन्दादिल है. और एक दिन वोह मर जाता है इन डायलोगों के साथ:
बाबूमोशाय , ज़िंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है…उसे न आप बदल सकते हैं न मैं!”
ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं बाबू मोशाय. जब तक ज़िंदा हूं, मरा नहीं. जब मर गया, तो साला मैं ही नहीं.
अगर हम अपनी जिंदगी का फलसफा सकारात्मक रखें तो हम कभी दुखी नहीं रहेंगे.
हम अपनी जिंदगी में किसी बड़ी ख़ुशी के इंतज़ार में छोटी छोटी खुशियों के मौके खो देते हैं.” और जीवन को नरक बना लेते हैं.