मृगतृष्णा
चलो चले उस पार
जहां मिलते हैं धरती और आकाश
मालूम है मुझको
यह एक मृगतृष्णा है
धरती और आकाश
न कहीं मिले हैं
न कभी मिलेंगे
हम सब बस
अपने अपने
सपनों में विचरते हैं
कभी हंस लेते
कभी रो लेते
हंसने रोने का
मनों को
बहलाने फुसलाने का
यह सिलसला
योही चला अा रहा है
और
योहीं चलता रहेगा
जब तक
हम और तुम
रहेंगे यहां.
*
ब्रजेश