एक भावनात्मक रिश्ता : सूखा पेड़ और मैं
मुझे वो पेड़ उस पार्क में सबसे खूबसूरत चीजो में से एक लगता है। बहुत सारी टहनियां निकली हुई है जिसे पार्क वालो ने एक अच्छा आकार दे दिया है। पतों ने कब का साथ छोड़ दिया है उस बेचारे का। देखने में वो बिल्कुल उम्र के आखिरी पड़ाव में लगता है। नीचे से बिल्कुल फैला हुआ और टूट टूट कर झड़ते उसके अपने ही अंग के मलबे बिखरे पड़े से है। इतने टूटने के बाद भी उसका अभिमान अभी भी जीवित जान पड़ता है। आस पास के हरे भरे पेड़ और उनके पास लगने वाले लोगो और चिड़ियों के हुजूम को देख कर भी ये कभी अपनी ब्यथा पर नहीं रोता है। तभी तो बिना रख रखाव और बिना महफ़िलो के भी अकेले तन कर खड़ा हुआ है। हाँ नीचे जमीन पर कुछ हरे भरे घास की संगत पाकर और उन्हें देखकर, ये भी कभी कभी अपनी बालपन से हो आता है। बगल में एक लाइट लगी हुई है जो अँधेरा होते ही इसे अपने बाहों में जकड लेती है और इसके खूबसूरती को एक नया आयाम देती है। ठीक जमीन से जहाँ इसका मिलन हुआ है वहाँ इसके चारों तरफ की गोलाकार जमीन पर मिट्टी का बसेरा है जो आँधियों से संघर्ष कर कही दूर चली गयी है और जमीन भी बिलकुल चिकनी शांत जान पड़ती है जिसमे कोई हलचल नहीं। यानी की पास की जमीन भी उस सूखे पेड़ के पडोसी होने का पूरा फर्ज अदा करती है। हाँ एक गिलहरी आती है उस जमीन से होते हुए उस सूखे पेड़ से मुलाकात करने और थोड़ी शरारत कर चली जाती है। बगल के घास को मिली हुई पानी का कुछ कतरा उस जमीन से होकर सूखे पेड़ से मिलना चाहता है पर जमीन कमबख्त बिच की दिवार जो उस पानी को बार बार सोख लेती है और पानी के उस कतरा और उस तन्हा पेड़ का मिलन तड़प बन कर दम घोट देता है। अरे ये क्या एक पतंग कब से इस पेड़ के टहनियों पर झूल रहा है। उसके भी चिथड़े हो गए है वो भी किसी काम का न रहा तभी तो उसके खोज में कोई टोली नहीं आई। हो सकता उसपर भी इस पेड़ के ही संगत का असर हो गया हो। या फिर पेड़ के तन्हाई के किस्से सुनकर वो पतंग बिखर गया हो और खुद को उसके हवाले सौप दिया हो। हवा चल तो रही है पर उस हवा के चलने का एहसास इस पेड़ के नीचे भला कहा होगा। बारिश आती है तो उनके बून्द को भी थोड़े देर के लिए कैद नहीं कर पाता। चाहता है बूंदों को समेटना पर उसके सूखे टहनियों से फिसल जाती है हर बार। कभी कोई इश्क़ करने वाले जोड़े भी नहीं आते क्योंकि छाँव भी नहीं देता न उन्हें। हो सकता है इश्क़ को समझ गया हो, इस वजह से ऐसे जोड़ो को पनाह नहीं देता हो। बगल से ही करीब 10 फ़ीट दूर से एक पगडण्डी गुजरती है जिसपर लोग अक्सर टहलते रहते है। हर कोई उस पगडण्डी से तेजी से निकल जाता है। कभी कभी कोई देख भी ले पर किसी को इस सूखे पेड़ से हमदर्दी नहीं होती और कोई भी अपना थोड़ा समय भी उस पेड़ के नाम नहीं करना चाहता।
मैं अक्सर हर दिन उसी पेड़ के नीचे बैठ जाता हूँ। पेड़ के नीचे ही चार पत्थरो के बेंच लगे हुए है। जो अक्सर खाली रहते है। शाम को मेरे बैठने से ही शायद उसकी तन्हाइयो में खलल पड़ता है। हाँ कभी कभी कुछ दादाजी लोग बैठ कर माहौल को गुलजार कर देते है। अपने तोतले आवाजो से तो ताश के पतों के साजो से। मैं भी अक्सर बैठ कर घूरता रहता हूं उसे। शाम ढलने पर कुछ पंछी के जोड़े उस सूखे पेड़ से दिल लगाने की गुस्ताखी कर लेते है। पर वो भी कब तक, दूर दिख रही ढेर सारे हरे पेड़ और उनके संगीत उन पंछी जोड़ो को अपने तरफ आकर्षित कर लेते है। और वो परदेसी दो पलो में ही उड़ जाते है। सुखा पेड़ तब भी कुछ नहीं बोलता। हाँ मेरा घूरना शायद उसे अजीब लगता हो। तभी तो कभी कभी मुझसे सवाल कर बैठता है कि मेरे पास अच्छा वक़्त नही बिताने को जो उसके तन्हाईयो को बाँट रहा हूँ। मैं कुछ नहीं बोल पाता । वो मुझे घूरता है मैं उसे। वक़्त कमबख्त वक़्त शायद उसे तो रुकना आता ही नहीं, तभी तो मुझपर बार बार चिल्ला रहा है। फिर क्या सारी भावनाओ को समेट अपने आशियाने की तरफ चल ही देते है। पर एक तार और है जो मुझे रोक रहा है जाने से जो मेरे और उस पेड़ के भावनाओ का तार है। पर नियति को कौन टाल सकता है। मैं दिल पर पत्थर रख चल ही देता हूं, खुद को समझाते हुए की कल फिर से रूबरू होना ही है। मैं उस पेड़ से पार्क के दरवाजे तक सिर्फ पेड़ को देखते रहा और वो मुझे। जाना मैं भी नहीं चाहता था और पेड़ भी मुझे नहीं जाने देना चाहता था पर जुबान पर दोनों के ताले लगे थे। और इसी ख़ामोशी से हम दोनों एक दूसरे से दूर होते गए। दुरी बढ़ती गयी, सन्नाटा बढ़ते रहा, तस्वीर धुंधली होती गयी और जुदाई का बोझ। काश वो पेड़ मेरा आशियाना होता या मेरा कमरा वो पार्क।
एक अन्जान, बेमेल, सच्चा, पवित्र और बहुत गहरा रिश्ता है ये। शायद हमारे आज के समाज में हमारे बुजुर्गों के हालात भी बिल्कुल उस सूखे पेड़ की तरह ही हो गए है, जिनके आखिरी पड़ाव में कोई साथ नहीं होता।
— प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”