औलूक्य दर्शनम्
कई दिनों बाद मार्निंग वाक की तैयारी में था कि एक कोने पर निगाह गई, एक मकड़ी अपने बुने जाले पर शिकार की तलाश में बैठी थी। सोचा, झाड़ू उठाकर मकड़ी का यह जाला साफ करता चलूं। वैसे तो आदमी दिनभर तीन-पाँच करता है, लेकिन सुबह-सुबह उसे कुछ धार्मिक टाइप की फीलिंग आती है। मैं भी फीलिंगीयाया “मकड़ी ने कितने परिश्रम से जाला बुना होगा! इसे साफ करने से तो इसकी जान पर बन आएगी; ये मकड़ियां भी न, बड़ी खूबसूरती से जाला बुनती हैं” और आफिस के लान में पौधों के बीच ऐसे ही एक खूबसूरत जाले पर बैठी मकड़ी का तस्वीर लेना याद आया। तस्वीर साफ आए इसलिए सफेद पेपर का बैकड्रॉप लगाकर फोटोग्राफी का अपना उल्लू सीधा किया था। खैर, मकड़ी और जाला बुनने के उसके परिश्रम के दृष्टिगत वहां सफाई का विचार त्यागकर मैं आवास के बाहर आ गया। टहलते हुए सोचने लगा, क्या मकड़ी और क्या आदमी, सब अपना उल्लू सी़धा करने में जुटे हैं! इसके लिए जाला भी बुनते हैं। लेकिन, उल्लू में ऐसा क्या टेढ़ा है जिसे सीधा करने की जरूरत होती है?
जो भी हो, उल्लू से संबंधित बचपन की स्मृतियां ताजी हो गई! जिस विशाल नीम के दरख़्त के छाँव तले बचपन बीता, उसी के कोटर से झांकती कुचकुचुआ की आँखें आज भी याद है, बड़ी-बड़ी और गोल-मटोल सी वे आंखें बोलती प्रतीत होती! उल्लू की उन घूरती आँखों को देखकर डर लगता!! लेकिन कभी-कभी दिन के उजाले में उल्लुओं को उस कोटर में रहना मुश्किल होता। उनको कोटर से बाहर करने के लिए कभी ‘चर्खी’ तो कभी ‘किलहटी’ जैसे पक्षी खूब कीलकटो मचाते। उस समय झगड़े वाली इनकी तीखी चहचहाहट जैसी आवाज सुनकर मैं दालान से बाहर आ जाता। देखता, झगड़े से परेशान होकर बेचारा उल्लू का जोड़ा कोटर से निकलकर नीम के दरख़्त की शाख पर आ बैठा है! अन्यथा तो सांझ होने पर ही वे कोटर से बाहर आते थे। फिर भी उसमें रहने के लिए उनके बीच जैसे कोई अलिखित समझौता था कि दिन में उल्लू और रात में पक्षी रहेंगे।
अकसर किसी को कहते सुना है, कुचकुचुआ सी बड़ी आँखों वाला आदमी बुद्धिमान होता है, तो उल्लू भी बुद्धिमान ही होगा। फिर क्यों इसकी गरिमा को ठेस पहुंचाने वाले मुहावरे गढ़े गए? शायद दिन के उजाले में इनकी देखने की क्षमता कम होने से इन्हें मूर्ख समझा गया हो! लेकिन यह चौकन्ना रहता है, गर्दन घुमा लेता है और रात में देख भी सकता है! तो यह ‘उल्लू बनाने’ की बात क्यों? लेकिन बचपन के औलूक्य-दर्शन से मैंने यही निष्कर्षात्मक ज्ञान निकाला है कि दिन में दृष्टि कमजोर होने से इनमें लाचारगी के साथ बेचारगी जैसा भाव आ जाता है और ये सीधे-सरल दिखाई पड़ते हैं या अपनी इस कमजोरी को भाँपकर ये स्वयं राग-द्वेष से विमुक्त ध्यानावस्था जैसी स्थिति बना लेते हैं। वैसे इस दौर-ए-जहां में सीधे-सज्जन को लोग मूर्ख ही समझते हैं और यह भी जरूरी नहीं कि ध्यानावस्था में बैठने वाला कोई संत ही हो तथा मूर्खता भी कोई स्थाई गुण नहीं होता। समझदार प्रजाति का जीव अपनी नासमझी की स्थिति में मूर्ख कहा जाता है। उल्लू हो या आदमी, दोनों में इस समझी और नासमझी के परिवर्तनशील गुण को ही उल्लूपना कहते है!
बेचारा उल्लू! यह उल्लू है और उल्लू ही रहेगा। लेकिन आदमी के अंदर भी एक अदद उल्लू बैठा है, जो उसे अज्ञान के निविड़ अंधकार में भटकने से रोकता भी है! लेकिन मन के अंधेरे वाले इंसान को यही रात वाला उल्लू टेढ़ा नजर आता है। इसी को वह दिन वाले उल्लू में बदलकर सीधा करता है। अकसर ऐसी ऊँची शाख वाला गुणी इंसान, वाह्य या अभ्यांतर जहाँ-कहीं उल्लू देखता है, उसे सीधा करने में जुट जाता है।
अपने इस वैचारिक प्रवाह के साथ चलता हुआ मैं पांच हजार कदम तय कर वापस पुनः आवास पर पहुंचा। बाहर फेंके अखबार को उठाकर अंदर आया। कोने में मकड़ी का जाला अब भी वैसा ही था, लेकिन मकड़ी अप्रत्याशित रूप से सक्रिय दिखाई पड़ी। पास जाकर देखा। उसके जाल में कोई नन्हा कीड़ा फंसा था और मकड़ी उसे अपने जाल में लपेट रही थी, मैं समझ गया कि थोड़ी ही देर में मकड़ी इस तड़फड़ाते कीड़े का काम तमाम कर देगी। खैर।
इस सुबह की टहलाई से शरीर भी स्फूर्तिदायक स्थिति में आ गया था। चाय बनाकर बिस्तर पर आया और रजाई ओढ़ लिया। एक हाथ में चाय की गिलास लिए दूसरे हाथ से अखबार के पन्ने पलटने लगा। एक खबर से पता चला कि श्मशानघाट पर छत ढालने वाला कोई ठेकेदार अभी तक फरार है। वह क्या है कि किसी के अंतिम-यात्रा पर गए कुछ इंसानी टाइप के कीड़े-मकोड़े जैसे जीव उस ठेकेदार द्वारा बनाई छत के गिरने से उसी में दबकर कालकवलित हो लिए थे। खैर इसमें कोई बड़ी बात नहीं, प्रकृति के नियमानुसार एक दिन सब को अपनी अंतिम-यात्रा पूरी करनी ही है। उस ठेकेदार ने एक साथ कई लोगों को गोलोकवासी बनाकर प्रकृति के नियम पालन में योगदान देकर एक तरीके का नेक और धार्मिक काम किया है, वैसे भी आजकल नियम-कानून की किसे परवाह है। लेकिन अखबार में उसके लिए प्रयुक्त ‘फरारी’ जैसे लैंग्वेज से मुझे बड़ा आकवर्ड सा फील हुआ। मैं अगर उस अखबार का संपादक होता तो ऐसे ठेकेदार के सम्मान में “सम्मानित ठेकेदार अन्तर्ध्यान होकर देशाटन पर निकला” या “सम्मानित ठेकेदार भ्रमण के लिए अन्तर्ध्यान हुए” जैसा और सम्मानपरक हेडिंग बनाता।
हां ऐसे ठेकेदार को सम्मानित किया ही जाना चाहिए! लेकिन ठेकेदार ही क्यों? उन सब गुणी और अधिकार संपन्न व्यष्टियों को भी सम्मानित किया जाना चाहिए जिन्होंने उसे काम देकर उस छत को गिरने लायक बनवाया। आखिर उन बेचारों ने भी उसके इस नेक और महती काम को सुगम बनाने के लिए मकड़ी की तरह जाला बुना होगा। वो कहते हैं न कि यहां हर शाख पर उल्लू बैठा है, तो भई! ये ऊँची शाख पर बैठने वाले उल्लू बनने-बनाने और इसे सीधा करने का खेल ही नहीं खेलते, बल्कि मकड़ी की तरह लसलसा जाल भी बुनते हैं। वैसे जिनकी शाख जितनी जबर्दस्त और ऊँचाई पर होती है वे उतनी ही कुशलता और निर्भीकता से अपना उल्लू सीधा कर पाते हैं। उल्लेखनीय है कि ऐसों को ही जीवन में नेक काम करने का अवसर भी मिलता है। इसके लिए जबर्दस्त सुरक्षाबोध भी चाहिए और यह बोध शाख की ऊँचाई के साथ बढ़ती जाती है! शाख गिरने न पाए इसके लिए इस मकड़जाल के लसलसे में कुछ को उल्लू बनाकर फिट किया जाता है। जरूरत पड़ने पर ढाल के रूप में इनकी बलि देकर शाख को सुरक्षित कर, श्मशानघाट जैसी छतें बनवा-बनवाकर अपने धार्मिक कर्तव्यों का ये निर्वहन करते हैं।
कुल मिलाकर भारतवर्ष में मकड़ी की तरह जाल बुनना, उल्लू बनाना और उल्लू सीधा करना जैसे प्रतिष्ठापरक कार्य ही भारतीयता है, यहाँ इसे बेहतरीन कला के रूप में भी मान्यता प्रदान की गई है। इसीलिए प्रत्येक प्रतिष्ठित भारतीय में यह श्रेष्ठ गुण पाया जाता है। ऐसे श्रेष्ठ गुणीजनों से युक्त भारतीयता की शाख को क्षति न पहुंचने पाए, इसके लिए भारत को ही एक ऐसे स्टील-फ्रेम पर फिट कर दिया गया है, जो आधुनिक तरकीबों से युक्त मकड़ी के जाले की भांति कार्य करता है। यह जाला मजबूती के साथ अब इतना लचीला हो चला है कि किसी माई के लाल में दम नहीं कि इसे छिन्न-भिन्न कर इस भारतीय लसलसे फ्रेम का बाल बांका कर सके।
खैर चाय पीने के बाद अखबार भी मोड़ कर कोंनिया दिया। इस समय दिवाल-घड़ी सुबह के आठ बजकर चौबीस या पच्चीस मिनट बता रही थी। अभी तो समय है, सोचकर रजाई को शरीर पर लपेटकर गुड़मुड़ियाया और बिस्तर पर ही ध्यानावस्था में बैठ गया तथा मेरी बंद आँखों में ही पुतलियां नाचने लगी। देखा ! घर-घाट, वन-बाग, उपवन-तड़ाग आदि सभी स्थानों पर अपना उल्लू सीधा करने के लिए लोग निघरघट होकर मकड़जाल बुनने में सन्नद्ध थे। अपने औलूक्य-दर्शन से प्रेरित मैं स्वयं के लिए प्रतिष्ठार्जन के तरीके पर मनन करने लगा। जैसे कि शाख के अनुरूप मेरी मकड़जाल बुनने की क्षमता कितनी और कैसी है या कि एक बेहतरीन और लसलसेदार जाल बुनने के लिए मुझे अपनी शाख को कितनी ऊँचाई पर ले जाना होगा तथा इसके लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाना होगा आदि-आदि। वैसे किसी के प्रति अतिशय प्रेम प्रदर्शित कर या किसी के मन में किसी के प्रति नफ़रत के बीज बोकर अपना उल्लू सीधा करने जैसे हथकंडे का ज्ञान तो मुझे पहले से ही है, लेकिन किसी और उत्तम निष्कर्ष पर पहुँचता कि दुर्भाग्यवश मेरी ध्यानावस्था तब भंग हो गई जब किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया। एक बार फिर दिवाल घड़ी देखी, ठीक साढ़े आठ बजा रही थी। मैं समझ गया कि आठ बज गए अब स्नान करने चलना चाहिए। बिस्तर त्यागा और उठ खड़ा हुआ। आजकल मेरी दिवाल घड़ी पच्चीस मिनट तेज चल रही है।
जो भी हो, उल्लू से संबंधित बचपन की स्मृतियां ताजी हो गई! जिस विशाल नीम के दरख़्त के छाँव तले बचपन बीता, उसी के कोटर से झांकती कुचकुचुआ की आँखें आज भी याद है, बड़ी-बड़ी और गोल-मटोल सी वे आंखें बोलती प्रतीत होती! उल्लू की उन घूरती आँखों को देखकर डर लगता!! लेकिन कभी-कभी दिन के उजाले में उल्लुओं को उस कोटर में रहना मुश्किल होता। उनको कोटर से बाहर करने के लिए कभी ‘चर्खी’ तो कभी ‘किलहटी’ जैसे पक्षी खूब कीलकटो मचाते। उस समय झगड़े वाली इनकी तीखी चहचहाहट जैसी आवाज सुनकर मैं दालान से बाहर आ जाता। देखता, झगड़े से परेशान होकर बेचारा उल्लू का जोड़ा कोटर से निकलकर नीम के दरख़्त की शाख पर आ बैठा है! अन्यथा तो सांझ होने पर ही वे कोटर से बाहर आते थे। फिर भी उसमें रहने के लिए उनके बीच जैसे कोई अलिखित समझौता था कि दिन में उल्लू और रात में पक्षी रहेंगे।
अकसर किसी को कहते सुना है, कुचकुचुआ सी बड़ी आँखों वाला आदमी बुद्धिमान होता है, तो उल्लू भी बुद्धिमान ही होगा। फिर क्यों इसकी गरिमा को ठेस पहुंचाने वाले मुहावरे गढ़े गए? शायद दिन के उजाले में इनकी देखने की क्षमता कम होने से इन्हें मूर्ख समझा गया हो! लेकिन यह चौकन्ना रहता है, गर्दन घुमा लेता है और रात में देख भी सकता है! तो यह ‘उल्लू बनाने’ की बात क्यों? लेकिन बचपन के औलूक्य-दर्शन से मैंने यही निष्कर्षात्मक ज्ञान निकाला है कि दिन में दृष्टि कमजोर होने से इनमें लाचारगी के साथ बेचारगी जैसा भाव आ जाता है और ये सीधे-सरल दिखाई पड़ते हैं या अपनी इस कमजोरी को भाँपकर ये स्वयं राग-द्वेष से विमुक्त ध्यानावस्था जैसी स्थिति बना लेते हैं। वैसे इस दौर-ए-जहां में सीधे-सज्जन को लोग मूर्ख ही समझते हैं और यह भी जरूरी नहीं कि ध्यानावस्था में बैठने वाला कोई संत ही हो तथा मूर्खता भी कोई स्थाई गुण नहीं होता। समझदार प्रजाति का जीव अपनी नासमझी की स्थिति में मूर्ख कहा जाता है। उल्लू हो या आदमी, दोनों में इस समझी और नासमझी के परिवर्तनशील गुण को ही उल्लूपना कहते है!
बेचारा उल्लू! यह उल्लू है और उल्लू ही रहेगा। लेकिन आदमी के अंदर भी एक अदद उल्लू बैठा है, जो उसे अज्ञान के निविड़ अंधकार में भटकने से रोकता भी है! लेकिन मन के अंधेरे वाले इंसान को यही रात वाला उल्लू टेढ़ा नजर आता है। इसी को वह दिन वाले उल्लू में बदलकर सीधा करता है। अकसर ऐसी ऊँची शाख वाला गुणी इंसान, वाह्य या अभ्यांतर जहाँ-कहीं उल्लू देखता है, उसे सीधा करने में जुट जाता है।
अपने इस वैचारिक प्रवाह के साथ चलता हुआ मैं पांच हजार कदम तय कर वापस पुनः आवास पर पहुंचा। बाहर फेंके अखबार को उठाकर अंदर आया। कोने में मकड़ी का जाला अब भी वैसा ही था, लेकिन मकड़ी अप्रत्याशित रूप से सक्रिय दिखाई पड़ी। पास जाकर देखा। उसके जाल में कोई नन्हा कीड़ा फंसा था और मकड़ी उसे अपने जाल में लपेट रही थी, मैं समझ गया कि थोड़ी ही देर में मकड़ी इस तड़फड़ाते कीड़े का काम तमाम कर देगी। खैर।
इस सुबह की टहलाई से शरीर भी स्फूर्तिदायक स्थिति में आ गया था। चाय बनाकर बिस्तर पर आया और रजाई ओढ़ लिया। एक हाथ में चाय की गिलास लिए दूसरे हाथ से अखबार के पन्ने पलटने लगा। एक खबर से पता चला कि श्मशानघाट पर छत ढालने वाला कोई ठेकेदार अभी तक फरार है। वह क्या है कि किसी के अंतिम-यात्रा पर गए कुछ इंसानी टाइप के कीड़े-मकोड़े जैसे जीव उस ठेकेदार द्वारा बनाई छत के गिरने से उसी में दबकर कालकवलित हो लिए थे। खैर इसमें कोई बड़ी बात नहीं, प्रकृति के नियमानुसार एक दिन सब को अपनी अंतिम-यात्रा पूरी करनी ही है। उस ठेकेदार ने एक साथ कई लोगों को गोलोकवासी बनाकर प्रकृति के नियम पालन में योगदान देकर एक तरीके का नेक और धार्मिक काम किया है, वैसे भी आजकल नियम-कानून की किसे परवाह है। लेकिन अखबार में उसके लिए प्रयुक्त ‘फरारी’ जैसे लैंग्वेज से मुझे बड़ा आकवर्ड सा फील हुआ। मैं अगर उस अखबार का संपादक होता तो ऐसे ठेकेदार के सम्मान में “सम्मानित ठेकेदार अन्तर्ध्यान होकर देशाटन पर निकला” या “सम्मानित ठेकेदार भ्रमण के लिए अन्तर्ध्यान हुए” जैसा और सम्मानपरक हेडिंग बनाता।
हां ऐसे ठेकेदार को सम्मानित किया ही जाना चाहिए! लेकिन ठेकेदार ही क्यों? उन सब गुणी और अधिकार संपन्न व्यष्टियों को भी सम्मानित किया जाना चाहिए जिन्होंने उसे काम देकर उस छत को गिरने लायक बनवाया। आखिर उन बेचारों ने भी उसके इस नेक और महती काम को सुगम बनाने के लिए मकड़ी की तरह जाला बुना होगा। वो कहते हैं न कि यहां हर शाख पर उल्लू बैठा है, तो भई! ये ऊँची शाख पर बैठने वाले उल्लू बनने-बनाने और इसे सीधा करने का खेल ही नहीं खेलते, बल्कि मकड़ी की तरह लसलसा जाल भी बुनते हैं। वैसे जिनकी शाख जितनी जबर्दस्त और ऊँचाई पर होती है वे उतनी ही कुशलता और निर्भीकता से अपना उल्लू सीधा कर पाते हैं। उल्लेखनीय है कि ऐसों को ही जीवन में नेक काम करने का अवसर भी मिलता है। इसके लिए जबर्दस्त सुरक्षाबोध भी चाहिए और यह बोध शाख की ऊँचाई के साथ बढ़ती जाती है! शाख गिरने न पाए इसके लिए इस मकड़जाल के लसलसे में कुछ को उल्लू बनाकर फिट किया जाता है। जरूरत पड़ने पर ढाल के रूप में इनकी बलि देकर शाख को सुरक्षित कर, श्मशानघाट जैसी छतें बनवा-बनवाकर अपने धार्मिक कर्तव्यों का ये निर्वहन करते हैं।
कुल मिलाकर भारतवर्ष में मकड़ी की तरह जाल बुनना, उल्लू बनाना और उल्लू सीधा करना जैसे प्रतिष्ठापरक कार्य ही भारतीयता है, यहाँ इसे बेहतरीन कला के रूप में भी मान्यता प्रदान की गई है। इसीलिए प्रत्येक प्रतिष्ठित भारतीय में यह श्रेष्ठ गुण पाया जाता है। ऐसे श्रेष्ठ गुणीजनों से युक्त भारतीयता की शाख को क्षति न पहुंचने पाए, इसके लिए भारत को ही एक ऐसे स्टील-फ्रेम पर फिट कर दिया गया है, जो आधुनिक तरकीबों से युक्त मकड़ी के जाले की भांति कार्य करता है। यह जाला मजबूती के साथ अब इतना लचीला हो चला है कि किसी माई के लाल में दम नहीं कि इसे छिन्न-भिन्न कर इस भारतीय लसलसे फ्रेम का बाल बांका कर सके।
खैर चाय पीने के बाद अखबार भी मोड़ कर कोंनिया दिया। इस समय दिवाल-घड़ी सुबह के आठ बजकर चौबीस या पच्चीस मिनट बता रही थी। अभी तो समय है, सोचकर रजाई को शरीर पर लपेटकर गुड़मुड़ियाया और बिस्तर पर ही ध्यानावस्था में बैठ गया तथा मेरी बंद आँखों में ही पुतलियां नाचने लगी। देखा ! घर-घाट, वन-बाग, उपवन-तड़ाग आदि सभी स्थानों पर अपना उल्लू सीधा करने के लिए लोग निघरघट होकर मकड़जाल बुनने में सन्नद्ध थे। अपने औलूक्य-दर्शन से प्रेरित मैं स्वयं के लिए प्रतिष्ठार्जन के तरीके पर मनन करने लगा। जैसे कि शाख के अनुरूप मेरी मकड़जाल बुनने की क्षमता कितनी और कैसी है या कि एक बेहतरीन और लसलसेदार जाल बुनने के लिए मुझे अपनी शाख को कितनी ऊँचाई पर ले जाना होगा तथा इसके लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाना होगा आदि-आदि। वैसे किसी के प्रति अतिशय प्रेम प्रदर्शित कर या किसी के मन में किसी के प्रति नफ़रत के बीज बोकर अपना उल्लू सीधा करने जैसे हथकंडे का ज्ञान तो मुझे पहले से ही है, लेकिन किसी और उत्तम निष्कर्ष पर पहुँचता कि दुर्भाग्यवश मेरी ध्यानावस्था तब भंग हो गई जब किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया। एक बार फिर दिवाल घड़ी देखी, ठीक साढ़े आठ बजा रही थी। मैं समझ गया कि आठ बज गए अब स्नान करने चलना चाहिए। बिस्तर त्यागा और उठ खड़ा हुआ। आजकल मेरी दिवाल घड़ी पच्चीस मिनट तेज चल रही है।