पशु-पक्षियों की पूजा-अर्चना
मूकप्राणियों के पूजनार्थ हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा ‘गाय’ की पूजा-अर्चना महासदियों से की जाती रही है । ‘गोकुल’ वासियों यानी गाय या गो पालकों के वंशजों के गाँव अवस्थित ‘गोवर्द्धन’ पर्वत को श्रीकृष्ण द्वारा इसलिए उठाया गया था, ताकि बारिश यानी देवराज के प्रकोप से बचा जा सके ! कहा जाता है, यह गोवर्द्धन पर्वत ‘गोबरों’ के ढेर से बना है।
‘गोबर’ की टिकिया व चिपरी व गोइठा लिए न केवल जलावन, अपितु ‘गोबर’ से आँगन की लिपाई-पुताई कार्य भी सम्पन्न होते हैं । वैज्ञानिक तथ्यान्वेषण यह कहता है कि दीपावली की रात दीप-बातियों के कारण मरे असंख्य कीड़े-मकौड़े को हटाकर आँगन की गोबर से पुताई अगले सुबह होती है, निहितार्थ ही ‘गोबर’ के विन्यस्त: ‘गोवर्धन व गोवर्द्धन व गौवर्द्धन’ पूजा दीपावली के एक दिन बाद ही होती है या तो गाय माता के साथ या गोबर के साथ !
गाय को नहाए जाते हैं, सींग में घी और सिंदूर लगाए जाते हैं, उनकी रस्सी भी बदली जाती है व बिल्कुल नई ! हमारे यहाँ जिनके पास गऊ माता नहीं है, तब पुष्प के साथ ‘गोबर’ की पूजा होती है ।