कविता

भ्रम

जिसको बस्ती समझता रहा ,
उम्र भर दरअसल ,
वही मरघट निकला ।
जहां से प्रत्येक क्षण
लाशें निकलती है ।।
जिसको मरघट समझता रहा ,
जिंदगी भर दरअसल ,
वही बस्ती निकला ।
जहां एक बार पहुंचने के बाद ,
फिर कभी वापस नहीं आता ।
जिंदगी भर इसी भ्रम में
गोता लगाता रहा ।।
एक भ्रम और टूटा ,
जब अपने ही रूठा ,
जिसके लिए रोता रहा उम्र भर ।
उनके आंखों में कभी नहीं आया ,
पानी एक बूंद एक थोपा ।।
आखरी में सारे भ्रम टूट गए !
‘वो अच्छे इंसान थे’
यह सुनने के लिए मरना पड़ा !
मरने के बाद पता चला ।।
— मनोज शाह ‘मानस’ 

मनोज शाह 'मानस'

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