ग़ज़ल
इक जख्म सा सीने में था रात भर रिसता रहा
जिंदगी की दौड़ में मैं ही सदा पिसता रहा
आज जाकर ये लगा कुछ सोच लूँ अपने लिए
हाथ में था अब तलक जो हाथ से गिरता रहा,
हर कसौटी पर जमाने की खरा उतरा हूँ मैं
क्योंकि अब तक सब लकीरें हाथ की घिसता रहा
दौर कितने गम ख़ुशी के संग लायी जिन्दगी
ले हंसी मुस्कान लब पर मैं यूँ ही हँसता रहा
उमर सारी ही लगा दी कर ली सबकी बंदगी
निज ख़ुशी का स्वप्न मेरी आँख में बसता रहा
बेरुखी सबसे मिली टूटा सदा विश्वास था
प्यार सबमें बाँट मन में हौसला भरता रहा
मैं हूँ क्या, क्या चाहतें हैं, जान ले कोई जरा
बस यही एक खबाब मेरी आँख में पलता रहा।।
— अनामिका लेखिका